''आज़ाद है मेरी परछाई मेरे बगैर चलने को,,,मै नहीं चाहता मेरे अपनों को ठोकर लगे...ये तो 'वर्तमान की परछाई' है ऐ दोस्त...जिसकी कशमकश मुझसे है...!© 2017-18 सर्वाधिकार सुरक्षित''

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Monday, January 9, 2012

नयी ग़ज़ल/ ''एक वक़्त तेरा इश्क भी दौलत सा था 'हरीश'...

आईनों को चेहरों से नफ़रत सी हो गयी
सायों को दूर फेंकने की हसरत सी हो गयी

अब इतना वक़्त कहाँ कि तेरी परवाह करू
मुझे अपने आप से मुहब्बत सी हो गयी

रास्तों के क़त्ल का इलज़ाम मुझपे है तो है
तन्हा अकेले चलने की आदत सी हो गयी

एक वक़्त तेरा इश्क भी दौलत सा था 'हरीश'
आज तेरी याद भी दहशत सी हो गयी

आईनों को चेहरों से नफ़रत सी हो गयी
सायों को दूर फेंकने की हसरत सी हो गयी...!

6 comments:

  1. अब इतना वक़्त कहाँ कि तेरी परवाह करू
    मुझे अपने आप से मुहब्बत सी हो गयी


    बहुत खूब ...ये ही जिंदगी का सबब हैं

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  2. शुक्रिया अनुजी...!
    जिंदगी का हर सबब मंजूर है हमे मगर ख्वाहिश बस यही है कि जिंदगी के इम्तिहान में कोई अपनों का सवाल न हो....!

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  3. वाह बहुत खूब लिखा है आपने बधाई समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/

    ReplyDelete
  4. बहुत बढ़िया प्रस्तुति....
    बधाई.....
    मेरा ब्लॉग पढने के लिए इस लिंक पे आयें.
    http://dilkikashmakash.blogspot.com/

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  5. रास्तों के क़त्ल का इलज़ाम मुझपे है तो है
    तन्हा अकेले चलने की आदत सी हो गयी

    ....बहुत खूब! बहुत सुन्दर प्रस्तुति..

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  6. बहुत ही सटीक और भावपूर्ण रचना। धन्यवाद।

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अरे वाह! हुजुर,आपको अभी-अभी याद किया था आप यहाँ पधारें धन्य भाग हमारे।अब यहाँ अपने कुछ शब्दों को ठोक-पीठ के ही जाईयेगा मुझे आपके शब्दों का इन्तेजार है...


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