''आज़ाद है मेरी परछाई मेरे बगैर चलने को,,,मै नहीं चाहता मेरे अपनों को ठोकर लगे...ये तो 'वर्तमान की परछाई' है ऐ दोस्त...जिसकी कशमकश मुझसे है...!© 2017-18 सर्वाधिकार सुरक्षित''

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Monday, August 26, 2013

हंसी गुम थी उदास दिख रहा था कुछ कुछ (ग़ज़ल)

कोरे कागज़ पर तू लिख रहा था कुछ कुछ
हंसी गुम थी उदास दिख रहा था कुछ कुछ

खुश तो था कि दुआएं मुकम्मल हुयी थी
फिर भी मन ही मन चिढ़ रहा था कुछ कुछ

थोड़े आंसू गिरे थे मेरे हर सवाल पर
कागज़े दिल तेरा भीग रहा था कुछ कुछ

एक झोंका हवा का गुजर भी गया
सुर्ख पत्ता अभी भी हिल रहा था कुछ कुछ

फ़ासलें मिट रहे थे देखो दूर क्षितिज़ में
जमीं से आसमां मिल रहा था कुछ कुछ

बरसों पहले जो दी थी मुहब्बत की निशानी
वो फुल गुलाब का खिल रहा था कुछ कुछ

बोली लगने से पहले ये हुआ था 'हरीश'
तेरे बाज़ार में मैं बिक रहा था कुछ कुछ 

Wednesday, August 21, 2013

मैंने देखा है मुहब्बत के गुलाबों का अंजाम...(नयी ग़ज़ल)


किसी  रोज़ जिंदगी  बिखर जाएगी
उड़ती पतंगे आसमां से उतर जाएगी

इस ओर कुछ दूरियाँ ज़ायज हैं वर्ना
उस ओर मुहब्बत की खबर जाएगी

मैंने देखा है मुहब्बत के गुलाबों का अंजाम
अश्कों में नहलाकर किताब निगल जाएगी

इस बुढ़ापे में इश्क की ख़ता न करो दोस्त
ज़ात-ऐ-बुजुर्ग बे आबरू होकर जाएगी

गज़लें गाकर देख दिन के उजालों में 'हरीश'
तेरे ख्वाबों में तन्हा मेरी रातें उतर जाएगी

Saturday, August 17, 2013

मेरे गांव के पंछी साँझ को घर नहीं लौटते....(नयी ग़ज़ल)

  नासाज  तबियत थोड़ी  ठीक हो जाय
 आओ  हम  ग़म में चूर चूर  हो जाय

बंजारों से कह दो हम उनसे वाबस्ता नहीं
ये दिन आराम के है तो कुछ आराम हो जाय 

वक़्त कहता है कोई नयी दुनिया बसा ले
तुम जमीं हो जाओ  हम आसमां हो जाय

मेरे गांव के पंछी साँझ को घर नहीं लौटते
जरुरी है तेरे गांव का रिश्ता मेरे गांव से हो जाय

किसी दिन हम भी तेरे गीत गाकर देखेंगे 'हरीश'
फ़िकर नहीं दुनिया दोस्त हो जाय दुश्मन हो जाय

Friday, August 16, 2013

अब परस्तिश ना रही भगवानों की...(उत्सवी ग़ज़ल)

 कभी अपने ख्यालों की मैं सुनता हूँ तो कभी ख्याल मेरी अपनी सुनते है इसी सिलसिले के दरमियाँ आजकल जो हालात मेरे और मेरे ख्यालों के बीच बन पड़े है वो इस 'उत्सवी' ग़ज़ल में पेश करता हूँ...!


अब  परस्तिश ना रही  भगवानों की
तबाह  हुयी तासीर  मेरे  फरमानों की

गफ़लत में इनाद आदमी कर भी ले
अमलन में वो सोच नहीं पशेमानों की

रोज उठकर दर पे स्वागत लिखता हूँ
बेदार  बंदगी  हो  बुजुर्ग  मेहमानों की

तख़्त मिला तोहफे में मैंने कुबूल किया
फिकर मगर ना थी जुल्मी सुल्तानों की

ख़ामोशी से बन बैठे हम ख़फा 'हरीश'
फ़ुर्सत हैं तो  करो  बात बे ज़बानों की...!

Thursday, August 15, 2013

'ज़श्न -ऐ-आज़ादी' से क्या होगा...! (नयी ग़ज़ल)

''कोई कसक दिल में दबी रह गयी ...!'' ऐसे गीत मुझसे गाये नहीं जाते हा मगर दिल के ज़ज्बात अक़सर अल्फाजों की शक्ल-औ-सूरत अख्तियार कर ही लेते है ...मगर यही मेरी बेबसी है और मेरी अनकही आरज़ू भी ...आज मुल्क के हालात के लिए अगर मैं बेबस हूँ तो मेरे अल्फाज़ भी...!
  

 'ज़श्न -ऐ-आज़ादी' से क्या होगा...! (नयी ग़ज़ल)

'ज़श्न -ऐ-आज़ादी' से क्या होगा
अंजुमन-ऐ-गवाही से क्या होगा...
ये गुलिस्ताँ अब क़ुरबानी मांगता है
सिर्फ खूं की निशानी से क्या होगा...
हो कोई ज़िक्र-ऐ-जलवा तो शमशीर उठे
गीत गाती नौजवानी से क्या होगा...
ये पुरानी दीवारों के ढहने का वक़्त है 'हरीश'
महज मरम्मत-ऐ-बाज़ारी से क्या होगा...!!

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