''आज़ाद है मेरी परछाई मेरे बगैर चलने को,,,मै नहीं चाहता मेरे अपनों को ठोकर लगे...ये तो 'वर्तमान की परछाई' है ऐ दोस्त...जिसकी कशमकश मुझसे है...!© 2017-18 सर्वाधिकार सुरक्षित''

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Saturday, April 18, 2015

बूढी मां की बाहों में फिर बिखर जाऊं (GAZAL)

दर्द के बादल पिघलते नहीं
चांद बचपन के ढलते नही
 
खिलौने बदतमीज हो गये है
चाबी ना भरुं तो चलते नहीं
 
किताबों से बस्ते फट भी गये
आज पैसों से झोले भरते नहीं
 
बूढी मां की बाहों में फिर बिखर जाऊं
खिलौने टूट गये है बचपन भूलते नहीं
 
अांगन में तितलियां अब कहां आती हैं
'हरि'बरसात होती नहीं फूल खिलते नहीं

3 comments:

  1. क्या बात है .......बचपन पर सहज और सुन्दर सृजन

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  2. सच है हरीश जी "अांगन में तितलियां अब कहां आती हैं"
    आपकी यादों के झरोखे ने कई यादें ताज़ा कर दीं।
    सुन्दर प्रस्तुति

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  3. This is the one of the most important information for me. And I am feeling glad reading your article. The article is really excellent ?

    ReplyDelete

अरे वाह! हुजुर,आपको अभी-अभी याद किया था आप यहाँ पधारें धन्य भाग हमारे।अब यहाँ अपने कुछ शब्दों को ठोक-पीठ के ही जाईयेगा मुझे आपके शब्दों का इन्तेजार है...


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