मैं रोते हुए बेबाक चन्द मंजर देख आया हूँ
संभलते हुए बेहिसाब लश्कर देख आया हूँ
काजल से सजी आँखें भी रूठ जाया करती है
पलकों पे सजे अश्कों के दफ्तर देख आया हूँ
इक अरसे बाद हंसा है वो तो कोई बात जरुर है
वरना उसे सिसकते हुए मैं अकसर देख आया हूँ
मैं डूबते हुए सूरज से शिकायत करता भी तो कैसे 'हरीश'
हर साँझ मुस्कुराते हुए उसे अपने घर देख आया हूँ...!