''आज़ाद है मेरी परछाई मेरे बगैर चलने को,,,मै नहीं चाहता मेरे अपनों को ठोकर लगे...ये तो 'वर्तमान की परछाई' है ऐ दोस्त...जिसकी कशमकश मुझसे है...!© 2017-18 सर्वाधिकार सुरक्षित''

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Sunday, April 29, 2012

मैं अकसर देख आया हूँ (ग़ज़ल)

मैं रोते हुए बेबाक चन्द मंजर देख आया हूँ 
संभलते हुए बेहिसाब लश्कर देख आया हूँ 

काजल से सजी आँखें भी रूठ जाया करती है 
पलकों पे सजे अश्कों के दफ्तर देख आया हूँ 

इक अरसे बाद हंसा है वो तो कोई बात जरुर है 
वरना उसे सिसकते हुए मैं अकसर देख आया हूँ 

मैं डूबते हुए सूरज से शिकायत करता भी तो कैसे 'हरीश' 
हर साँझ मुस्कुराते हुए उसे अपने घर देख आया हूँ...!


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