अब परस्तिश ना रही भगवानों की
तबाह हुयी तासीर मेरे फरमानों की
गफ़लत में इनाद आदमी कर भी ले
अमलन में वो सोच नहीं पशेमानों की
रोज उठकर दर पे स्वागत लिखता हूँ
बेदार बंदगी हो बुजुर्ग मेहमानों की
तख़्त मिला तोहफे में मैंने कुबूल किया
फिकर मगर ना थी जुल्मी सुल्तानों की
ख़ामोशी से बन बैठे हम ख़फा 'हरीश'
फ़ुर्सत हैं तो करो बात बे ज़बानों की...!
teekhe tewar!
ReplyDeleteजी कभी कभी अख्तियार करने ही पड़ते है...शुक्रिया!
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