''आज़ाद है मेरी परछाई मेरे बगैर चलने को,,,मै नहीं चाहता मेरे अपनों को ठोकर लगे...ये तो 'वर्तमान की परछाई' है ऐ दोस्त...जिसकी कशमकश मुझसे है...!© 2017-18 सर्वाधिकार सुरक्षित''

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Friday, August 16, 2013

अब परस्तिश ना रही भगवानों की...(उत्सवी ग़ज़ल)

 कभी अपने ख्यालों की मैं सुनता हूँ तो कभी ख्याल मेरी अपनी सुनते है इसी सिलसिले के दरमियाँ आजकल जो हालात मेरे और मेरे ख्यालों के बीच बन पड़े है वो इस 'उत्सवी' ग़ज़ल में पेश करता हूँ...!


अब  परस्तिश ना रही  भगवानों की
तबाह  हुयी तासीर  मेरे  फरमानों की

गफ़लत में इनाद आदमी कर भी ले
अमलन में वो सोच नहीं पशेमानों की

रोज उठकर दर पे स्वागत लिखता हूँ
बेदार  बंदगी  हो  बुजुर्ग  मेहमानों की

तख़्त मिला तोहफे में मैंने कुबूल किया
फिकर मगर ना थी जुल्मी सुल्तानों की

ख़ामोशी से बन बैठे हम ख़फा 'हरीश'
फ़ुर्सत हैं तो  करो  बात बे ज़बानों की...!

2 comments:

  1. जी कभी कभी अख्तियार करने ही पड़ते है...शुक्रिया!

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अरे वाह! हुजुर,आपको अभी-अभी याद किया था आप यहाँ पधारें धन्य भाग हमारे।अब यहाँ अपने कुछ शब्दों को ठोक-पीठ के ही जाईयेगा मुझे आपके शब्दों का इन्तेजार है...


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