''जिंदगी जीने के नुस्खों में मुझे ऐतबार नहीं है मैं अपनी जिंदगी बहिस्कारों के साये में जीने की कोशिश करता हूँ।मेरे विचारों की मासूमियत आज भी मुझे ये हक नहीं बख्स्ती की मैं अपनी ही तन्हाईयों से परहेज करू मैं ख्यालों के बिच फ़ासलों में विश्वास हरगिज़ नहीं रखता मैं ऊँची उड़ानों में विश्वास रखता हूँ।''मेरी मर्ज़ी...
Monday, January 23, 2012
Monday, January 9, 2012
नयी ग़ज़ल/ ''एक वक़्त तेरा इश्क भी दौलत सा था 'हरीश'...
आईनों को चेहरों से नफ़रत सी हो गयी
सायों को दूर फेंकने की हसरत सी हो गयी
अब इतना वक़्त कहाँ कि तेरी परवाह करू
मुझे अपने आप से मुहब्बत सी हो गयी
रास्तों के क़त्ल का इलज़ाम मुझपे है तो है
तन्हा अकेले चलने की आदत सी हो गयी
एक वक़्त तेरा इश्क भी दौलत सा था 'हरीश'
आज तेरी याद भी दहशत सी हो गयी
आईनों को चेहरों से नफ़रत सी हो गयी
सायों को दूर फेंकने की हसरत सी हो गयी...!
सायों को दूर फेंकने की हसरत सी हो गयी
अब इतना वक़्त कहाँ कि तेरी परवाह करू
मुझे अपने आप से मुहब्बत सी हो गयी
रास्तों के क़त्ल का इलज़ाम मुझपे है तो है
तन्हा अकेले चलने की आदत सी हो गयी
एक वक़्त तेरा इश्क भी दौलत सा था 'हरीश'
आज तेरी याद भी दहशत सी हो गयी
आईनों को चेहरों से नफ़रत सी हो गयी
सायों को दूर फेंकने की हसरत सी हो गयी...!
Sunday, January 8, 2012
गर तू खुशबू का शौक रखता है...!
समंदर भी हूँ दरिया भी हूँ गर तू डूबने का शौक रखता है
खुली किताब की तरह हूँ मैं गर तू पढने का शौक रखता है
ये नौबत भी आएगी इक दिन कि रह न पायेगा मेरे बगैर
मैं गुलाब बन जाऊंगा गर तू खुशबू का शौक रखता है
सिलसिला जारी है मेरा आग से मुलाकातों का आजकल
मैं मुहब्बत बन जाऊंगा गर तू जलने का शौक रखता है
मुशायरों से वाकिफ हूँ तालियों कि तिस्नगी भी जानी है
मैं ग़ज़ल बन जाऊंगा गर तू गुनगुनाने का शौक रखता है
होश में आने के लिए मैं अकसर अकेले ही शराब पीता हूँ 'हरीश'
मैं हुजूम-ऐ-मस्ती बन जाऊंगा गर तू मैखाने का शौक रखता है
खुली किताब की तरह हूँ मैं गर तू पढने का शौक रखता है
ये नौबत भी आएगी इक दिन कि रह न पायेगा मेरे बगैर
मैं गुलाब बन जाऊंगा गर तू खुशबू का शौक रखता है
सिलसिला जारी है मेरा आग से मुलाकातों का आजकल
मैं मुहब्बत बन जाऊंगा गर तू जलने का शौक रखता है
मुशायरों से वाकिफ हूँ तालियों कि तिस्नगी भी जानी है
मैं ग़ज़ल बन जाऊंगा गर तू गुनगुनाने का शौक रखता है
होश में आने के लिए मैं अकसर अकेले ही शराब पीता हूँ 'हरीश'
मैं हुजूम-ऐ-मस्ती बन जाऊंगा गर तू मैखाने का शौक रखता है
Saturday, January 7, 2012
नयी ग़ज़ल--'' पत्थर की मूरत हूँ मैं प्रेम कर या सजदा कर...!''
हो सके तो माफ़ कर या खुद अपने को जुदा कर
पत्थर की मूरत हूँ मैं प्रेम कर या सजदा कर
और कितनी बातें करोगे रूठने मनाने की पर्दों में
वक़्त की ये आरज़ू है अपने आप को बेपर्दा कर
हक की जागीर पत्थरों पे खुदवाने से क्या होगा
बेशकीमती मुहब्बत है तेरी गैरों को फायदा कर
बहुत खा ली है कसमे दिल लगाने की पशोपेश में
अब कुछ यूँ कर कि कसने न खाने का वादा कर
बेशक मुझसे जुदा होकर भी तू जी न पायेगा 'हरीश'
आ बैठ मुझसे अपनी दो-चार साँसों का सौदा कर
हो सके तो माफ़ कर या खुद अपने को जुदा कर
पत्थर की मूरत हूँ मैं प्रेम कर या सजदा कर...!
पत्थर की मूरत हूँ मैं प्रेम कर या सजदा कर
और कितनी बातें करोगे रूठने मनाने की पर्दों में
वक़्त की ये आरज़ू है अपने आप को बेपर्दा कर
हक की जागीर पत्थरों पे खुदवाने से क्या होगा
बेशकीमती मुहब्बत है तेरी गैरों को फायदा कर
बहुत खा ली है कसमे दिल लगाने की पशोपेश में
अब कुछ यूँ कर कि कसने न खाने का वादा कर
बेशक मुझसे जुदा होकर भी तू जी न पायेगा 'हरीश'
आ बैठ मुझसे अपनी दो-चार साँसों का सौदा कर
हो सके तो माफ़ कर या खुद अपने को जुदा कर
पत्थर की मूरत हूँ मैं प्रेम कर या सजदा कर...!
सफ़र जिंदगी का...(शब्दों में)
महज़ एक अधकचरी किलकारी
और सफ़र शुरू
जिंदगी का...!
जीवंत सांसों का
खुले आसमानों का
रंगों का
बारिशों का
अपनों का -परायों का
होंसलों का
अफसानों का
शबनमी कली का
सफ़र जिंदगी का....!
शुरूआती सफ़र की रफ़्तार
मुकम्मल नहीं होती
लडखडाती हुई
गिरती-पड़ती हुई
अँगुलियों के सहारे चलने वाली
रोते-हँसते हुए सिखने वाली
होती है रफ़्तार
और अनुभव भी कच्चा होता है
जैसे बुलबुलों का हार...!
सफ़र आगे बढ़ता है
शब्दों-अक्षरों में खो जाने को
किताबों में गैर जिंदगियां पढता है
हंसती हुयी- बिलखती हुयी
खुद को रफ़्तार देने के लिए
कुछ सीखना पड़ता है...!
एकाएक सफ़र के
अधूरे होने का आभास होता है
कुछ सीखना पड़ता है...!
एकाएक सफ़र के
अधूरे होने का आभास होता है
हमसफ़र की तलाश रहती है
मस्ती रहती है
मौज रहती है
उतार-चढाव
टेढ़े-मेढे मोड़ों की तादात रहती है
हमसफ़र के साथ
फिर रफ़्तार बुलंदीयों पर
ऊँचे आसमानों पर रहती है
नयी शाखें,नयी कलियाँ फूटती है
खुशबू से ओतप्रोत
गुलाब बनने को
और सफर बढ़ता है
वक़्त की आजमायिशों पर...!
रफ्ता-रफ्ता
सफ़र फिर लडखडाता है
मगर थामने के लिए
अब अंगुलियाँ नहीं होती
छड़ियाँ होती है
सांसें अटकने का आभास होता है
जिंदगी का आलिशान महल
अनुभवों की बिरादरी के साथ
ढहने को होता है
इस तरह जिंदगी का सफ़र ख़त्म होता है
शून्य में...!
मस्ती रहती है
मौज रहती है
उतार-चढाव
टेढ़े-मेढे मोड़ों की तादात रहती है
हमसफ़र के साथ
फिर रफ़्तार बुलंदीयों पर
ऊँचे आसमानों पर रहती है
नयी शाखें,नयी कलियाँ फूटती है
खुशबू से ओतप्रोत
गुलाब बनने को
और सफर बढ़ता है
वक़्त की आजमायिशों पर...!
रफ्ता-रफ्ता
सफ़र फिर लडखडाता है
मगर थामने के लिए
अब अंगुलियाँ नहीं होती
छड़ियाँ होती है
सांसें अटकने का आभास होता है
जिंदगी का आलिशान महल
अनुभवों की बिरादरी के साथ
ढहने को होता है
इस तरह जिंदगी का सफ़र ख़त्म होता है
शून्य में...!
Friday, January 6, 2012
एक गुनाहगार का ख़त मूरत-ऐ-मुहब्बत के नाम...
प्रिय मूरत-ऐ-मुहब्बत,
तुम्हारे भेजे ख़त की आखिरी यात्रा आज मेरे हाथों में पहुँचते ही दम तोड़ गयी। ख़त पढ़कर तेरी नादानियों पर हंसी भी आई और मेरी अतीत की कारगुजारियों पर रोना भी। खैर...अब जिक्र मैं अपने हालातों का करता हूँ...
आजकल मैं अपने हिस्से के गुनाहों का बड़ी सिद्दत से ख्याल रखता हूँ। मुझे बेहद अजीज है मेरे ये गुनाह अतीत के।बस इसी खातिर सहेज के रखे है इन्हें दिल के एक मासूम कोने में। ये उस वक़्त के गुनाह है जब तू मेरे साथ हुआ करता था।मेरा अपना था। मुस्कुराना-हँसना-रातों में जगना-जगाना, सर्द हवाओं से दिल की बातें करना, परिंदों के परवाजों के गीत गाना...यही तो है वे सब मेरे अपने गुनाह! अतीत के गुनाह। शुक्र है ये गुनाह अब मुझसे नहीं किये जाते। और तुम हो की सिसकियों के सायों में आहट सी बन के रह गयी हो पदचापों की मानिंद मेरे दिल-ओ-दिमाग में। ये मेरे अपने हालात है कमोबेश शब्दों में बयान नहीं होते। तेरी अलसाई आँखों का शर्म के चक्रवातों में झुक जाना, तेरी खुशबूओं से आब-ओ-हवा का पाक-साफ़ हो जाना...मैं अब भी नहीं भूला। तेरी कसमों की चांदनी तो आज भी मेरे बटूए में है, समेटी हुयी। सहेज के रखी हुयी। अब जब भी मुहब्बत के बाज़ार से गुजरता हूँ अकसर मेरे हाथ जिनसे गुलाबों के फुल लिए थे-दिए थे गुज़रे वक़्त में, कमबख्त मेरी जेब में अतिक्रमण कर ही जाते है ताकि खरीद सकू वफ़ा की चाबी से चलने वाले खिलौनें...हँसते हुए-गाते हुए-रमते हुए खिलौनें।
तो क्या आज भी तेरे होंठ कंपकंपाते है मेरा नाम लेते हुए।...अच्छा है! अकसर यही होता है। जो वफ़ा की बातें बार-बार करता है वो वफ़ा एक बार भी नहीं करता।उसके अपने होंठ भी क्या साथ देंगे। इसीलिए तो किस्तों में शब्दों की चारदीवारी खींचनी पड़ती है अपने हक के मंदिर को बेआबरू करने से पहले। मुहब्बत तो ऐसी ही होती है..क्या करें। इसमे ना तेरा कसूर है ना तेरी वफाओं का क्योकि इस बाज़ार में खुशबूओं की नीलामी तक सर-ऐ-राह हो जाती है। किस्मत की बाज़ी है, बिक जाए तो बेमोल हो जाती है और ना बीके तो बेशकीमती।
अब छोडो भी...!क्या रोना खुद की ही बेजा हरकतों पर।सुबह का भूला अगर भूल ही गया कि उसे शाम को घर लौटना भी है तो भूल ही जाने दो।अगली सुबह तो उसे आना ही है।पलकों का गुनाह बेकुसूर आँखे क्यों भुगते और बिचारे अश्कों का तो कोई लेना-देना भी न था।क्यों बहाते हो इन्हें फोकट में। अश्क अनमोल है जरा सम्भाल के रखो।जिंदगी बड़ी बेरहम है कब साथ छोड़ जाये कुछ पता ही नहीं चलता और अगर पता चलता तो लोग मुहब्बत ही क्यों करते? वफ़ा कि कसमें क्यों खाते? क्यों होते मुहब्बत के सलीके दरकिनार?
खैर मुझसे ना सही मेरे नाम से तो तेरा वास्ता अब भी है...तुम्हारे लिखे खतों से ये मालुम होता है कि तुमने मेरा ये ऐतबार आज तलक नहीं तोडा...शुक्रिया..!
तुम्हारा अपना
''गुनाहगार''
Thursday, January 5, 2012
अक्षर-शब्द और स्याही के नाजायज़ फासलें...
अक्षर-शब्द और स्याही के
ये नाजायज़ फासलें
मुझसे देखे नहीं जाते...!
इंसानी किताबों के भीतर
बेबाक अक्षर
खो से गये है
शब्दों के झूठे इल्जामों से
और स्याही है
कि न रूठ सकी
न मना पायी किसी को
न विद्रोही वाणी से
किसी क्रांति का आगाज़ किया
कि शब्द शर्मशार हो जाये
और पहचाने अपने वजूद को
अक्षरों की निष्कपट,
भोली-मासूम सी
आत्माओं के अटूट बन्धनों में...!
अक्षर-शब्द और स्याही के
ये नाजायज़ फासलें
मुझसे देखे नहीं जाते...!
Wednesday, January 4, 2012
''पगलाई है बस्ती सारी...!'' इक नामुमकिन नयी ग़ज़ल
पगलाई है सारी बस्ती इक तेरे रूठ जाने से
बिखर गये हो अक्षर जैसे पन्नों के फट जाने से
मिटटी के नादान घरों की छत की किस्मत क्या होगी
तिरपालों का मोल बढ़ा है बारिश के आ जाने से
कोरे-कोरे कीर्तन है और भजनों में कोई भाव नहीं
भगवानों में रोष बहुत है मंदिर के ढह जाने से
कुसूर नहीं है इसमे तेरा तू तो आता-जाता था
उसके घर में आग लगी है मेरा पता बताने से
किनारों की खता नहीं ये टूट-बिखरना जायज है
दरियाओं में होड़ लगी थी जल्दी ही भर जाने से
साँझ ढले घर को आ जाना बेशक मुमकिन है 'हरीश'
रातों के अक़सर मसलें है सूरज के ढल जाने से
पगलाई है सारी बस्ती इक तेरे रूठ जाने से
बिखर गये हो अक्षर जैसे पन्नों के फट जाने से...!
Tuesday, January 3, 2012
नादान ख्वाब...
आँखों की भीगी पलकें
अब बंद नहीं होती
ख्वाबों के लिए...
काश वो ख्वाब न देखा होता
अश्कों का जलजला न होता
आँखों में आज
न होती तनहा रातें
न वफ़ा पे रोना आता...
मगर मैं रोक न पाया खुद को
नादान था शायद
हल्के रंगों से
इन्द्रधनुषी ख्वाब बुनने चला था,
वो ख्वाब भले बेवफा था
मगर हसीन भी कम न था,,,
आहिस्ता-आहिस्ता
मैं जब भी करवट बदलता हूँ
वो बातें उसकी वफ़ा की
वो दुलार रहमतों का
अब देखने नहीं देता
कोई खूबसूरत ख्वाब...
सब रह गया पीछे
किसी बरगद की छांव में जैसे
कारवां चलता ही गया
बेफिक्री में
अनजान सफ़र पर
और मुहब्बत दम तोड़ गयी
शातिर कसमों की
अल्लहड़,
भोली पनाहों में...
आँखों की भीगी पलकें
अब बंद नहीं होती
ख्वाबों के लिए...!!
Monday, January 2, 2012
स्याही की अंतिम बूँद...
खुशबूदार केवड़े के उजले फूल की पंखुरी पे बैठी तितली के इन्द्रधनुषी जिस्म की खूबसूरती के जानदार गुमान की जायज़ दरियादिली के चमत्कारों की जादूगरी में डूबी बेहिसाब बेहोशी में पटाक्षेप करने वाले अजीज ख्यालों की सौगातों में निखरी मेरी जज्बाती कलम की स्याही की अंतिम बूँद से जो मैंने आज नए साल की शानदार शान-ओ-शौकत में लिखा वो यह था...''स्याही ख़त्म हो गयी है कल दवात लाना ही होगा''
Sunday, January 1, 2012
तो क्या आज पहला दिन है नए साल का?
कल रात शहर में शोर शराबा हुआ। पटाखों ने भी सोतें लोगों से कहा की हम भी आवाज करते है मौके-गैर र्मौके पर। सर्द रात होने की वजह से मैं अपने कानो को ढके सो रहा था।अचानक जगा, ये कोलाहल कैसा? एक बारगी तो सोचा शायद सरकार मान गयी कि 'अब भ्रष्टाचार न करेंगे न किसी माइका लाल को करने देंगे'।चलो अच्छा हुआ देश के लिए भी और मेरे अपने लिए भी। मै भी कब तक खुद को सांत्वना की घूस देता रहता। मगर शायद मेरा ये सोचना भी एक ख्वाब की तरह उस वक़्त बिखरा जब सुबह टहलते-टहलते मैंने शहर के चौराहे पर आजादी के लिए कोलाहल करने वाले एक क्रांतिकारी की मूर्ति के अगल-बगल शराब के पव्वे और बोतलें बिखरी देखी। गर्वीले भारतीयों के शालीन संस्कारों की राख देखी। ये जानकार दिल तार-तार रोया की अब जो कोलाहल होता है वो सिर्फ खोखला है! 'परिवर्तन' के लिए नहीं होता, 'विद्रोह' के लिए नहीं होता। होता है तो सिर्फ 'एंजोयमेंट' के लिए होता है संस्कारों को जलाने के लिए होता है। नया 'साल' मनाने के लिए होता है, देश की अस्मिता के नये 'दिन' की शुरुआत के लिए नहीं होता।
युग बदलने से संस्कार नहीं बदल जाते । फिर क्या हो गया है मेरे यारों को, मेरे भाई भतीजों को। वतन के लिए कब करेंगे कोलाहल? कब ये कोलाहल परिवर्तन के लिए विद्रोह का साथ देगा? कब सुधारों की क्रांति की जड़ बनेगा ये कोलाहल?
चलिए, मै भी सोचता हूँ.आप भी सोचिये। कोलाहल न सही ये काम तो हम कर ही सकते है...!
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