आईनों को चेहरों से नफ़रत सी हो गयी
सायों को दूर फेंकने की हसरत सी हो गयी
अब इतना वक़्त कहाँ कि तेरी परवाह करू
मुझे अपने आप से मुहब्बत सी हो गयी
रास्तों के क़त्ल का इलज़ाम मुझपे है तो है
तन्हा अकेले चलने की आदत सी हो गयी
एक वक़्त तेरा इश्क भी दौलत सा था 'हरीश'
आज तेरी याद भी दहशत सी हो गयी
आईनों को चेहरों से नफ़रत सी हो गयी
सायों को दूर फेंकने की हसरत सी हो गयी...!
सायों को दूर फेंकने की हसरत सी हो गयी
अब इतना वक़्त कहाँ कि तेरी परवाह करू
मुझे अपने आप से मुहब्बत सी हो गयी
रास्तों के क़त्ल का इलज़ाम मुझपे है तो है
तन्हा अकेले चलने की आदत सी हो गयी
एक वक़्त तेरा इश्क भी दौलत सा था 'हरीश'
आज तेरी याद भी दहशत सी हो गयी
आईनों को चेहरों से नफ़रत सी हो गयी
सायों को दूर फेंकने की हसरत सी हो गयी...!
अब इतना वक़्त कहाँ कि तेरी परवाह करू
ReplyDeleteमुझे अपने आप से मुहब्बत सी हो गयी
बहुत खूब ...ये ही जिंदगी का सबब हैं
शुक्रिया अनुजी...!
ReplyDeleteजिंदगी का हर सबब मंजूर है हमे मगर ख्वाहिश बस यही है कि जिंदगी के इम्तिहान में कोई अपनों का सवाल न हो....!
वाह बहुत खूब लिखा है आपने बधाई समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
ReplyDeletehttp://mhare-anubhav.blogspot.com/
बहुत बढ़िया प्रस्तुति....
ReplyDeleteबधाई.....
मेरा ब्लॉग पढने के लिए इस लिंक पे आयें.
http://dilkikashmakash.blogspot.com/
रास्तों के क़त्ल का इलज़ाम मुझपे है तो है
ReplyDeleteतन्हा अकेले चलने की आदत सी हो गयी
....बहुत खूब! बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
बहुत ही सटीक और भावपूर्ण रचना। धन्यवाद।
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