अक्षर-शब्द और स्याही के
ये नाजायज़ फासलें
मुझसे देखे नहीं जाते...!
इंसानी किताबों के भीतर
बेबाक अक्षर
खो से गये है
शब्दों के झूठे इल्जामों से
और स्याही है
कि न रूठ सकी
न मना पायी किसी को
न विद्रोही वाणी से
किसी क्रांति का आगाज़ किया
कि शब्द शर्मशार हो जाये
और पहचाने अपने वजूद को
अक्षरों की निष्कपट,
भोली-मासूम सी
आत्माओं के अटूट बन्धनों में...!
अक्षर-शब्द और स्याही के
ये नाजायज़ फासलें
मुझसे देखे नहीं जाते...!
Beautiful as always.
ReplyDeleteIt is pleasure reading your poems.
and you are welcome as always to read my post here on my blog...your comments make me encouraged...sanjay ji!
ReplyDeleteआगामी शुक्रवार को चर्चा-मंच पर आपका स्वागत है
ReplyDeleteआपकी यह रचना charchamanch.blogspot.com पर देखी जा सकेगी ।।
स्वागत करते पञ्च जन, मंच परम उल्लास ।
नए समर्थक जुट रहे, अथक अकथ अभ्यास ।
अथक अकथ अभ्यास, प्रेम के लिंक सँजोए ।
विकसित पुष्प पलाश, फाग का रंग भिगोए ।
शास्त्रीय सानिध्य, पाइए नव अभ्यागत ।
नियमित चर्चा होय, आपका स्वागत-स्वागत ।।
आप बहुत अच्छा लिखते हो!
ReplyDelete