पगलाई है सारी बस्ती इक तेरे रूठ जाने से
बिखर गये हो अक्षर जैसे पन्नों के फट जाने से
मिटटी के नादान घरों की छत की किस्मत क्या होगी
तिरपालों का मोल बढ़ा है बारिश के आ जाने से
कोरे-कोरे कीर्तन है और भजनों में कोई भाव नहीं
भगवानों में रोष बहुत है मंदिर के ढह जाने से
कुसूर नहीं है इसमे तेरा तू तो आता-जाता था
उसके घर में आग लगी है मेरा पता बताने से
किनारों की खता नहीं ये टूट-बिखरना जायज है
दरियाओं में होड़ लगी थी जल्दी ही भर जाने से
साँझ ढले घर को आ जाना बेशक मुमकिन है 'हरीश'
रातों के अक़सर मसलें है सूरज के ढल जाने से
पगलाई है सारी बस्ती इक तेरे रूठ जाने से
बिखर गये हो अक्षर जैसे पन्नों के फट जाने से...!
कोटिशः आभार शिवम् जी...
ReplyDeleteहमारी पोस्ट को ब्लॉग बुलेटिन में शामिल करने के लिए...!
वाह!!! क्या बात है बहुत ही सुंदर एवं प्रभावशाली रचना ...समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
ReplyDeletebahut khoob kore kore keertan..waah ye sher bahut achcha laga...jabardast
ReplyDelete@पल्लविजी, टिपण्णी और आमंत्रण के लिए शुक्रिया,,,बेफिक्र रहिये यायावर है हम आपकी पोस्ट पढने घूमते घूमते आ ही जायेंगे
ReplyDelete@दिलीपजी शेर पसंद करने के लिए तह-ऐ-दिल से शुक्रिया...
वाह!!!!!!बहुत खुबशुरत गजल,...लिखी हरीश जी,
ReplyDelete"काव्यान्जलि":--में स्वागत है
बिखर गये हो अक्षर जैसे पन्नों के फट जाने से...
ReplyDeleteबहुत खूब !
bahut khoob
ReplyDeletewww.poeticprakash.com
सराहना के लिए शुक्रिया @धीरेन्द्रजी @वाणी जी @ प्रकाशजी
ReplyDelete@धीरेन्द्रजी,आप स्वागत करो और हम न आये ये तो नामुमकिन है...
बहुत पसन्द आया
ReplyDeleteहमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
बहुत देर से पहुँच पाया ....!
आभार भास्करजी...
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