छोडो भी होती है पुरानी बातें बेक़सूर
अब क्या तेरा कसूर क्या मेरा कसूर
वो हर शाम तन्हाई की चादर में होता है
और आंसूओं में आँखें रहती है भरपूर
उल्फत को जागीर की मानिंद खर्च करता हूँ
क्या करू अपनी फितरत से हूँ मझबूर
कसमों की बंदिशे भी खूब मझेदार होती है
दो गज फासले का मैखाना भी लगता है दूर
मुस्कुरातें आशिकों से दर्द की बातें न करो 'हरीश'
लोग कहेंगे भड़काता है और रहता है दूर....
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अरे वाह! हुजुर,आपको अभी-अभी याद किया था आप यहाँ पधारें धन्य भाग हमारे।अब यहाँ अपने कुछ शब्दों को ठोक-पीठ के ही जाईयेगा मुझे आपके शब्दों का इन्तेजार है...