घर-ऐ-तन्हा का सफ़र कुछ इस तरह हमने किया
खामोश दीवारें मिली और एक बुझा सा दीया
जो भी था सब कुछ बिका बस लग न पायी आखिरी
हुजूम-ऐ-नीलामी में कुछ आंसूओ की बोलिया
वो कफस में कैद पंछी की तरह जब छटपटाया
देखकर हालात खुद के मन ही मन मुस्का दिया
रात जब गहरी हुयी तो जाने क्या वो सोचकर
या खुदा खुद की तलाश में मुस्कुरा के चल दिया
सर कटाने का वजूद काबिल-ऐ-तारीफ था मगर
ठोकरें रस्मो की खाकर उसने सर झुका दिया
खुशियों का माहौल अब न रास आएगा 'हरीश'
जो भी हो उसको तो अपनी अजीज है तन्हाईयाँ......
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अरे वाह! हुजुर,आपको अभी-अभी याद किया था आप यहाँ पधारें धन्य भाग हमारे।अब यहाँ अपने कुछ शब्दों को ठोक-पीठ के ही जाईयेगा मुझे आपके शब्दों का इन्तेजार है...