हर शख्स की बेपनाह जिंदगी मे झांकती कदम दर कदम आगे बढ़ने वाली दास्ताँ-ऐ-वक़्त को मैंने अपनी स्वरचित कविता ''वक़्त का आशियाना'' में कुछ प्रश्न उठाते हुए ढाला है जो अपनी गुन्जायिश-ऐ-आवाज़ तक इंसान का आह्वान करती है
आशियाना वक़्त का उजड़ा हुआ लगता है क्यों,
दूर समंदर की मौजो का घर किनारा लगता है क्यों,
जब हुआ फरमान-ऐ-मौत इन्सान की हरी झंडियो पर
कितने ही गुजरे जनाजे वक़्त की पगडण्डीयो पर
खाक ही हर शख्स का गर अंत होता है भला
आदमी फिर जन्दगी भर का सफ़र करता है क्यों
आशियाना वक़्त का.............................................
वक़्त की कोई रूह है न जिस्म की कोई बानगी
आदमी की उम्र सी बढती है वक़्त रवानगी
इंचो में ही मुस्कुराना वक़्त की पहचान है
आदमी फिर मुस्कुराने से भला डरता है क्यों
आशियाना वक़्त का............................................
इन्सान के जद अक्षरों से बेखबर है वक़्त पेज
वक़्त तो बस वक़्त है उसको किसी की क्या गुरेज
और गर होती गुरेज तो सर-ऐ-राह-ऐ-आरज़ू पर
अपने मासूम पदचिन्ह न छोड़कर चलता है क्यों
आशियाना वक़्त का...............................................
मौत तो फोकट में मिल जाती है यूँ हर आदमी को
वक़्त उचित मिल न पाता लडखडाती जिंदगी को
जब से देखा वक़्त के घर खुद हरीश जयपाल को
आदमी तब से वक़्त को कीमती कहता है क्यों
आशियाना वक़्त का उजड़ा हुआ लगता है क्यों
दूर समंदर की मौजो का घर किनारा लगता है क्यों...
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अरे वाह! हुजुर,आपको अभी-अभी याद किया था आप यहाँ पधारें धन्य भाग हमारे।अब यहाँ अपने कुछ शब्दों को ठोक-पीठ के ही जाईयेगा मुझे आपके शब्दों का इन्तेजार है...