परम्पराओं के पुजारी को
देखा है मैंने
बहिष्कारों की घंटियाँ बजातें
जुलूसों के दिए जलाते
मंदिर में
वो रहता है अकसर
गुमसुम
शांतचित्त
ये जानते हुए भी कि
शब्दों के नगाड़े
निहायत जरुरी है
सुबह कि आरती में
फिर भी
मौन है, चुप है
शायद शिकायत है उसकी
भगवान से
कि अभी तक
ऊब क्यों नहीं गये
घंटियों के शोर से...
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अरे वाह! हुजुर,आपको अभी-अभी याद किया था आप यहाँ पधारें धन्य भाग हमारे।अब यहाँ अपने कुछ शब्दों को ठोक-पीठ के ही जाईयेगा मुझे आपके शब्दों का इन्तेजार है...