मैं आज भी
मेरी मंजिलों के बिच
आने वाले पत्थरों पे
तिलक लगाता हूँ,
सर झुकता हूँ ,
सजदा करता हूँ...
पहुंचे हुए पीरों की दुत्कारों ने
मुझे वो रास्तें दिखाएँ है
जिनपर अकसर लोग नहीं जाते
जहाँ मंजिलें खो जाती है
अनायास
पहाड़ों के पार,
नदियों के शालीन मोड़ों पर,
ये मेरे रास्तें है
जिनकी मंजिलों से थोड़ी कम बनती है...।
मेरी मंजिलों के बिच
आने वाले पत्थरों पे
तिलक लगाता हूँ,
सर झुकता हूँ ,
सजदा करता हूँ...
पहुंचे हुए पीरों की दुत्कारों ने
मुझे वो रास्तें दिखाएँ है
जिनपर अकसर लोग नहीं जाते
जहाँ मंजिलें खो जाती है
अनायास
पहाड़ों के पार,
नदियों के शालीन मोड़ों पर,
ये मेरे रास्तें है
जिनकी मंजिलों से थोड़ी कम बनती है...।
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अरे वाह! हुजुर,आपको अभी-अभी याद किया था आप यहाँ पधारें धन्य भाग हमारे।अब यहाँ अपने कुछ शब्दों को ठोक-पीठ के ही जाईयेगा मुझे आपके शब्दों का इन्तेजार है...