''आज़ाद है मेरी परछाई मेरे बगैर चलने को,,,मै नहीं चाहता मेरे अपनों को ठोकर लगे...ये तो 'वर्तमान की परछाई' है ऐ दोस्त...जिसकी कशमकश मुझसे है...!© 2017-18 सर्वाधिकार सुरक्षित''

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Wednesday, December 28, 2011

गुनाहों को सबूतों में बाँट रखा है

अपनों को रिश्तों में बाँट रखा है
गुनाहों को सबूतों में बाँट रखा है 

वक़्त की पाबंदियां मजबूरों के लिए है
मैंने वक़्त को लम्हों में बाँट रखा है....
उसकी दिलेरी के किस्से बड़े मशहूर है
जिसने समंदर को बारिशों में बाँट रखा है...
मैं नादान था जो ख्वाबों को उधारी में देखा
अब लौटाने है तो किस्तों में बाँट रखा है..
मंजिलों के रास्तें अब मुझसे तय नहीं होते
दूरियों को मैंने पगडण्डीओं में बाँट रखा है

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अरे वाह! हुजुर,आपको अभी-अभी याद किया था आप यहाँ पधारें धन्य भाग हमारे।अब यहाँ अपने कुछ शब्दों को ठोक-पीठ के ही जाईयेगा मुझे आपके शब्दों का इन्तेजार है...


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