''आज़ाद है मेरी परछाई मेरे बगैर चलने को,,,मै नहीं चाहता मेरे अपनों को ठोकर लगे...ये तो 'वर्तमान की परछाई' है ऐ दोस्त...जिसकी कशमकश मुझसे है...!© 2017-18 सर्वाधिकार सुरक्षित''

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Thursday, December 29, 2011

मैंने झूठ के पैर देखे है...


मैंने झूठ के पैर देखे है
सत्य के नकाब में 
चलते देखा है झूठ को दौड़ते देखा है
खुदा की बेकुसूरी पर 
मस्जिदों की दीवारों को 
फकीरों ने सिसकते देखा है।
मैंने साँझ के वक़्त 
कसमों की फटी चादर में 
बुढ़िया को ठण्ड से ठिठुरते देखा है।
पुजारीओं की प्रार्थनाओं में 
लोगों की खुशहाली को
बेबस कुचलते देखा है ।
मैंने झूठ के पैर देखे है 
सत्य के नकाब में 
चलते देखा है झूठ को दौड़ते देखा है....।

2 comments:

  1. सच किसी नवाब की तरह जब तक पैरों में जूते डालता है
    झूठ पूरी दुनिया की सैर करके आ जाता है ...

    ReplyDelete
  2. शुक्रिया रश्मि जी...
    आपके अमूल्य कमेंट्स से हम जैसे अनाड़ी ग़ज़लकारों को भी कुछ उम्दा करने का हौसला मिलता रहता है...
    चिंता न करिये मेरे अपने हिस्से का झूठ जन्मजात अँधा बहरा और लंगड़ा भी है...

    ReplyDelete

अरे वाह! हुजुर,आपको अभी-अभी याद किया था आप यहाँ पधारें धन्य भाग हमारे।अब यहाँ अपने कुछ शब्दों को ठोक-पीठ के ही जाईयेगा मुझे आपके शब्दों का इन्तेजार है...


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