''आज़ाद है मेरी परछाई मेरे बगैर चलने को,,,मै नहीं चाहता मेरे अपनों को ठोकर लगे...ये तो 'वर्तमान की परछाई' है ऐ दोस्त...जिसकी कशमकश मुझसे है...!© 2017-18 सर्वाधिकार सुरक्षित''

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Saturday, May 26, 2012

चलते-चलते आखिरी सलाम हो जाए...(ग़ज़ल)

इस जिंदगी के नाम इक जाम हो जाये
कुछ रात मयखाने में आराम हो जाये

हम उनसे ये कहकर घर से निकले थे 
इंतजार ना करना चाहे शाम हो जाए 

वो इतना हसीं है की गम न होगा गर
उससे मुहब्बत करके बदनाम हो जाए 

क्यू करे मुहब्बत छुप-छुपकर जहाँ से 
हर राज बेनकाब सरे-आम हो जाए 

इक मुलाकात उनसे जरुरी है 'हरीश'
चलते-चलते आखिरी सलाम हो जाए




इक कसम ऐसी भी अब खा ली जाये (गज़ल)



इक कसम ऐसी भी अब खा ली जाये 
जिससे दोस्ती-दुश्मनी संभाली जाये 

टूटी तस्वीर से आंसू टपकते देखकर 
किसी कलंदर की दुआएं बुला ली जाये 

अब कोई ताल्लुक न रहा उसका मुझसे
हो सके इश्क की अफवाहें दबा ली जाये 

खबर है तूफां जानिबे-समंदर निकले हैं 
वक़्त पर टूटी कश्तियाँ सजा ली जाये 

इन्तजारे-यार की भी हद होती है 'हरीश' 
थकी आँखें इक रात को सुला ली जाये 

Wednesday, May 23, 2012

चाँद भी तेरे हुस्न का गर दीवाना हो जाये (जिन्दा ग़ज़ल)


मुहब्बत का तिलिस्मी अफ़साना हो जाये 
चाँद भी तेरे हुस्न का गर दीवाना हो जाये 

इस नादान दिल को सुकूँ भी मिल जायेगा  
हर रोज तेरा मेरे घर आना जाना हो जाये 

ये लंबा सफ़र है जीने का आखरी सांस तक  
जिंदगी को लम्हों में बांटकर जीना हो जाये 

अब मजे की बात नहीं रही तेरी मुहब्बत में 
हो सके तो तेरा रूठना मेरा मनाना हो जाये 

खुद के साये पर हरगिज़ एतबार न करो 'हरीश' 
अँधेरे में हमें रुकना हो तो ये रवाना हो जाये 

Tuesday, May 22, 2012

मुहब्बत भी एक किस्म की फकीरी है जनाब (ग़ज़ल)

मुहब्बत भी एक किस्म की फकीरी है जनाब
फुरकते-महबूब में तड़पना मझबूरी है जनाब

सूखे पत्तों की खबर अंधड़-तूफानों से पूछिये
बेसहारा जिंदगी की हर सांस आखिरी है जनाब

वो कहते रहे गैरों से दिल की बाते रो-रो कर
जैसे इश्क की बातों में अश्क जरुरी है जनाब

ये चाँद ये सितारे ये जमीं आसमान हर कोई
अहसास की हवा में जिन्दा शरीरी है जनाब

गैरों  के घर का ठिकाना मत पूछिये 'हरीश'
रस्मे-तोहिन इस शहर में अब जरुरी है जनाब



Sunday, May 20, 2012

शायरी-शायरी खेल बनाम शायर का इम्तिहान...

दोस्तों!
ग़ज़ल सूफी फकीरों की दौलत है जो शायरों को विरासत में मिली है। ये जागीर ही ऐसी है जिसे हर कोई अपनी मुहब्बत और गमदीदा माहौल में इस्तेमाल करता है। मुहब्बत-गम और शायरी इस जहाँ की एक अटूट तिगडी है जिसकी खूबसूरती का चर्चा वक़्त की पगडंडियों पर सरे-राह होता रहा है...।
              आज अलसुबह हमारा नादाँ दिमाग एक शरारत कर गया और हमें ये ख्याल दे गया की क्यों न आप जैसे फनकारों के साथ एक अल्फाजों का खेल खेला जाय। यह खेल बिलकूल पाक-साफ़ है। हम आपके समक्ष ग़ज़ल का एक ''मिसरा'' सजाने की गुस्ताखी किये जा रहे है जो निहायत एक खुबसूरत जिंदगी जीने का तलबगार है ।इस मिसरे को उम्मीद है की आपका हुनर इसे ग़ज़ल बन जाने तक की जिंदगी बख्स दे...।
''हुनर  को  इम्तिहानों  तक ले चलो
आशिकों को मयखानों तक ले चलो 
ये मिसरा भी जीने को बेताब सा है दोस्त 
इसे किसी खुबसूरत ग़ज़ल तक ले चलों''
               आपको महज करना ये है कि अपने कमेन्ट में काफ़िया और रदीफ़ का ख्याल रखते हुए अगला मिसरा सुपर्दे-खेल करना है....।
(विशेष सूचना: आपसे विनम्र गुजारिश है की ये दिल को बहलाने का महज एक खेल है जिसे खेल की मानिंद ही खेलना है...अपशब्दों का इस्तेमाल वर्जित है।)
आपकी दिलनवाजी का अभी से ही शुक्रिया...!

ये है वो मिसरा जिसे जिंदगी की तलब है....

............''चाँद भी तेरे हुस्न का गर दीवाना हो जाये''..............



Friday, May 18, 2012

खुबसूरत हो तुम (ग़ज़ल)


नकाब में हुस्न की मूरत हो तुम
रंगे-खुशबू सी खुबसूरत हो तुम
जिंदगी की बेनजीर जागीर हो 
किसी गरीब की दौलत हो तुम 
हो उजली ठंडी बूंद बारिश की 
बंजर जमीं की जरुरत हो तुम 
बुरा मानने का जिक्र क्यों करूं
मीठी-मीठी सी शरारत हो तुम 
दर्द का दरिया सुकूं का साहिल 
कश्ती में बिखरी मुहब्बत हो तुम 
जुल्फों के साये में खुशबू के घर
चांदे-पूनम सी खुबसूरत हो तुम 
यूँ कैसे भुला दूं तुम्हे मैं  'हरीश'
रूठी ही सही मेरी किस्मत हो तुम

उसका रूठ जाना तबाही से कम नहीं (ग़ज़ल)

उसका  रूठ  जाना  तबाही से कम नहीं
लिबासे-ख़ामोशी झूठी गवाही से कम नहीं

अब न रोना है उसका  न खिलखिलाना
वो गुजरे लम्हे भी  शायरी से कम नहीं

तमाम उम्र भी कम है  शिकवों के लिए
जिंदगी के शिकवे  जिंदगी से कम नहीं

पंछी  भी उड़ते-उड़ते  दम तोड़ देते है
आसमां की कीमत  जमीं से कम नहीं

अकसर वही बात  लोग किया करते है
जो मुहब्बत की  कहानी से कम नहीं

ख्वाब में खुदा भी मुझसे कह गया'हरीश'
मेरी बंदगी भी   तेरी बंदगी से कम नहीं

Thursday, May 17, 2012

जिन्दा हूँ मगर आज भी गम के लिबास में (ग़ज़ल)

जिन्दा हूँ मगर आज भी गम के लिबास में 
बिखरी हुई कहानियाँ जिस्मे-अलफ़ाज़ में 

आखिरी ख्वाहिश ये मेरी नाम-ऐ-साकी है 
तमाम  ईंट-ऐ-कब्र  नहला  दो  शराब में

न जाने किसके गले से आगाज़-ऐ-क़त्ल हो 
बेहिसाब फिक्रमंद है लोग बिखरी कतार में

बदनामियों का डर महज  उनको ही होगा
वे अजनबी जो ठहरे है मेरे घर के पास में 

ख़त्म हो भी तो कैसे हो परेशानियां  'हरीश'
हर  सवाल  गमदिदा है  तेरे हर  जवाब में 

Saturday, May 12, 2012

जिंदगी जीने के जो आसां तरीके है (इक नादाँ ग़ज़ल)


जिंदगी जीने के जो आसां तरीके है 
मौत की चौखट पे मुद्दतों से सीखे है 

तू ही था जिस पर मुझे नाजिश था कभी 
आज तेरे ख्याल भी खामोश फीके है 

होश में रहना गज़ब हुनर की बात है 
इश्क की शराब जो हम पी के बैठे हैं 

परेशाँ है बादशाहों के महल घर-बार  
बेफिक्र चैन-औ-सुकूँ से फकीर लेटे है 

क्या खूब सीखा हैं सलीका बंदगी का ऐ' हरीश' 
महबूब के पैरों की धूल सर पर उन्डेले है 

नाजिश =गर्व

नफरतों की गुस्ताखी (ख्वाबों से बनी गजल)



जिंदगी के मसलों की ज़ीनत जरुरी है 
जागीरे-बख्शीस की कीमत जरुरी है...

नफरतों की गुस्ताखी हर रोज करता हूं
मुहब्बत करने को तो फुर्सत जरुरी है... 

जंग का मैदान जख्मे-जमीं हो गया 
अब अमनौ-चैन की हरकत जरुरी है...

आँख का मतलब नहीं हर वक़्त रोया जाय 
अश्क की बारिश को फुरकत जरुरी है... 

मुहब्बत का खेल तू न खेल पायेगा'हरीश'
इस हुनर के खेल में शौहरत जरुरी है...


जिंदगी के मसलों की ज़ीनत जरुरी है 
जागीरे-बख्शीस की कीमत जरुरी है...

Thursday, May 10, 2012

बेक़सूर निगाहों के मसलें (ग़ज़ल)

बेक़सूर निगाहों के मसलें चश्मदीद गवाह हो गये 
हम इतना डूबे उसकी चाहत में कि दरिया हो गये 

मुहब्बत की बाँहों में सिसककर गम शुकून पाता है 
अश्कों में नहाकर बेआबरू  तमाम शिकवा हो गये

 एक बार जो उसकी खैर ली तो वो लिपट के रो पड़ा 
बातों बातों में हम भी गमे-यार के हिस्सेदार हो गये 

हर पत्थर को खंगालने की जब-जब भी चली है बात 
जाने क्यूँ बेबुनियाद मेरे शहर के मकां परेशां हो गये 

अकसर सूखे पत्ते उसी सिम्त फेंक दिए जाते है'हरीश'
जिस किसी सिम्त रवाना अश्कियाँ तूफां हो गये...!

Wednesday, May 9, 2012

खुशबू का आलम जारी है (ट्विटर पर लिखी मेरी ग़ज़ल)



तुझसे बेपनाह मुहब्बत की ये कारगुजारी है 
नादाँ बस्ती में जनाजा-ऐ-महबूब की तैयारी है 

तुझे भूल भी जाऊं मगर आज ये हालात है मेरे 
बिखरी जुल्फों में भी खुशबू का आलम जारी है 

बेफिक्र बस्ती में इक फकीर धुनी तपा के बैठ गया 
बेसुध खुदा को पाने की उसकी पुरजोर तैयारी है 

कुछ न कहना उसे वो हर बात का बुरा मानती है 
वो गज़ब की बेशकीमती है वो खुदा की दुलारी है 

खेल-ऐ-मुहब्बत में खबरदारी भी जरुरी है 'हरीश'
इसमे जीत भी करारी है इसमे हार भी करारी है 

Tuesday, May 8, 2012

एक कहानी ऐसी हो (ऐतिहासिक ग़ज़ल)


कोरे पन्नों की किस्मत में एक कहानी ऐसी हो
इतिहासों के सर पर मढ़ते इल्जामों के जैसी हो

ये तब्दिली का मौसम है तब्दिली के बादल हैं
तेरी मेरी सबकी कोशिश ऊजले सावन जैसी हो

बूढी रस्मे तोड़ फेंकना इतना मेरा मकसद है
तेरे मकसद की सूरत भी मेरे मकसद जैसी हो

तड़फ रहा है मुल्क ये अपना जंजीरों के पाशो में
हर जंजीर पर चोट भी गहरी लोहारों के जैसी हो

जुल्मों के साये में जीना बीते कल की बाते है
'हरीश' क्रांति की तैयारी उड़ते बाजों जैसी हो....



Monday, May 7, 2012

तू मेरा अपना सा लगे है (ग़ज़ल)



तेरा कूँचा-ऐ-शहर भी मेरा अपना सा लगे है
क्यों रहूँ तन्हा जब  तू मेरा अपना सा लगे है  

गुजरे ज़माने की बातें सलीके से क्या करनी 
जब ये वारदातों का जमाना अपना सा लगे है 

हर रात चरागों से गुफ्तगू का आलम जारी है 
पतंगों का जानलेवा इश्क मेरा अपना सा लगे है 

एक बारगी तुझसे टूट के मुहब्बत भी कर लूं' हरीश'
मगर तन्हाई ये मंजर-ऐ-अश्क मेरा अपना सा लगे है


तेरा कूँचा-ऐ-शहर भी मेरा अपना सा लगे है
क्यों रहूँ तन्हा जब  तू मेरा अपना सा लगे है ...!

Sunday, May 6, 2012

मजा आ जाये (ग़ज़ल)

कुछ तो हो बहाना कि मजा आ जाये
गर तू हो करीब मेरे मजा आ जाये 

ये कोलाहल ये बेहिसाब शोर-शराबा 
शहर में हो कोई गांव मजा आ जाये 

मेरे जनाजे को सजाने से पहले उसे 
मेरी कसम याद दिला दो मजा आ जाये

तेरी नज़रों से दूर चला भी जाऊं चुपचाप                  
एक बारगी तू कह दे तो मजा आ जाये 


अब और कितना उसे याद करूं 'हरीश'
रफ्ता-रफ्ता भूल ही जाऊं मजा आ जाये 

कुछ तो हो बहाना कि मजा आ जाये
गर तू हो करीब मेरे मजा आ जाये...!

Saturday, May 5, 2012

जुगनुओं की तरह जला जाये (ग़ज़ल)

तेरे हुस्न का किस्सा तेरा कातिल सुना जाये,
बात गर मजे की है बेबाक कुछ तो कहा जाये...!

गैरों के घरों में अपने लोग भी नजर आ जाते हैं 
गली से गुजरते हुए गर बेखौफ झाँका जाये...!

खुद मंजिलें अपनी और लौट सकती है अगर 
अँधेरे सफ़र में भी जुगनुओं की तरह जला जाये...!

ता-उम्र मेरी ये ख्वाहिश जिन्दा रहेगी 'हरीश'
रूठ जाये गर दुनिया तो मुझसे ना रूठा जाये...!

तेरे हुस्न का किस्सा तेरा कातिल सुना जाये
बात गर मजे की है बेबाक कुछ तो कहा जाये...!

Friday, May 4, 2012

तुझे नज़रंदाज़ कर लूं ( ग़ज़ल)

  ये मुमकिन तो है की तुझे नज़रंदाज़ कर लूं 
  खफा हो जाऊ कभी खुद से कभी माफ़ कर लूं 

  तेरी दबी आवाज़ भी सुने एक अरसा बीत गया 
  हो हुनर तो तेरी आवाज़ को मेरी आवाज़ कर लूं 

  किस्से मशहूर है लोगो की जुबानी मेरे दिल के
  गर बस में होता तो हर किस्से पे ईनाम कर लूं

आज फिर कोई गुमनाम बस्ती में लौट आया हैं 'हरीश'
 बिखर के चरणों में गिरुं या पहले आदाब कर लूं


  ये मुमकिन तो है की तुझे नज़रंदाज़ कर लूं 
  खफा हो जाऊ कभी खुद से कभी माफ़ कर लूं 

Wednesday, May 2, 2012

वक़्त मिले गर तो (नयी ग़ज़ल)

वो ग़मज़दा है मगर मुसकुरा के बात करता है
ये उसका सलीका हैं सलीके से बात करता है ...

न जाने क्यूँ वक़्त कमबख्त ठहर जाता है 
वो जब भी मिलता है कुछ करामात करता है ...

मैंने बंजर जमीं में गुलाबों की फसल बोई है 
दरियादिल है तू जो बेवक़्त बरसात करता है ...

वक़्त मिले गर तो खुदा से मुहब्बत भी कर लूं 'हरीश' 
ये बात और है कि वो मुझसे मुहब्बत दिन-रात करता है...

वो ग़मज़दा है मगर मुसकुरा के बात करता है
ये उसका सलीका हैं सलीके से बात करता है ...

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