''आज़ाद है मेरी परछाई मेरे बगैर चलने को,,,मै नहीं चाहता मेरे अपनों को ठोकर लगे...ये तो 'वर्तमान की परछाई' है ऐ दोस्त...जिसकी कशमकश मुझसे है...!© 2017-18 सर्वाधिकार सुरक्षित''

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Tuesday, May 8, 2012

एक कहानी ऐसी हो (ऐतिहासिक ग़ज़ल)


कोरे पन्नों की किस्मत में एक कहानी ऐसी हो
इतिहासों के सर पर मढ़ते इल्जामों के जैसी हो

ये तब्दिली का मौसम है तब्दिली के बादल हैं
तेरी मेरी सबकी कोशिश ऊजले सावन जैसी हो

बूढी रस्मे तोड़ फेंकना इतना मेरा मकसद है
तेरे मकसद की सूरत भी मेरे मकसद जैसी हो

तड़फ रहा है मुल्क ये अपना जंजीरों के पाशो में
हर जंजीर पर चोट भी गहरी लोहारों के जैसी हो

जुल्मों के साये में जीना बीते कल की बाते है
'हरीश' क्रांति की तैयारी उड़ते बाजों जैसी हो....



3 comments:

  1. वाह...............

    बूढी रस्मे तोड़ फेंकना इतना मेरा मकसद है
    तेरे मकसद की सूरत भी मेरे मकसद जैसी हो
    बेहद सशक्त गज़ल...............

    अनु

    ReplyDelete
  2. बूढी रस्मे तोड़ फेंकना इतना मेरा मकसद है
    तेरे मकसद की सूरत भी मेरे मकसद जैसी हो

    बहुत खूब है रही यह ऐतिहासिक गजल है ....!

    ReplyDelete
  3. तड़फ रहा है मुल्क ये अपना जंजीरों के पाशो में
    हर जंजीर पर चोट भी गहरी लोहारों के जैसी हो... waah

    ReplyDelete

अरे वाह! हुजुर,आपको अभी-अभी याद किया था आप यहाँ पधारें धन्य भाग हमारे।अब यहाँ अपने कुछ शब्दों को ठोक-पीठ के ही जाईयेगा मुझे आपके शब्दों का इन्तेजार है...


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