मौत की चौखट पे मुद्दतों से सीखे है
तू ही था जिस पर मुझे नाजिश था कभी
आज तेरे ख्याल भी खामोश फीके है
होश में रहना गज़ब हुनर की बात है
इश्क की शराब जो हम पी के बैठे हैं
परेशाँ है बादशाहों के महल घर-बार
बेफिक्र चैन-औ-सुकूँ से फकीर लेटे है
क्या खूब सीखा हैं सलीका बंदगी का ऐ' हरीश'
महबूब के पैरों की धूल सर पर उन्डेले है
रविकर चर्चा मंच पर, गाफिल भटकत जाय |
ReplyDeleteविदुषी किंवा विदुष गण, कोई तो समझाय ||
सोमवारीय चर्चा मंच / गाफिल का स्थानापन्न
charchamanch.blogspot.in
umda gazal hai ,bdhai
ReplyDeletesundar gazal hai
ReplyDeleteबेहतरीन अल्फाज उम्दा नज्म ....शुक्रिया जी
ReplyDeleteक्या खूब सिखा हैं सलीका बंदगी का ऐ'हरीश'
Deleteमहबूब के पैरों की धुल सर पर उन्डेले है
ek shair me do do galatiyaan nahin chalengee zanaab ,gazal achchhi hai lekin vartani kee shuddhi akharti ahi .kripyaa shuddh karen 'sikhaa 'nahin hai 'seekhaa'hai .likh kar dekhen .aur dhul nahin dhool hai .shukriyaa .
शुक्रिया जनाब आपका मशवरा सर आँखों पर ...
Delete'सिखा' की 'सीखा' में तब्दिली हो गयी...और 'धुल' बिचारी 'धूल' बन के रह गयी...!
बहुत खूब ! बेहतरीन गज़ल...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर गजल.....
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