''आज़ाद है मेरी परछाई मेरे बगैर चलने को,,,मै नहीं चाहता मेरे अपनों को ठोकर लगे...ये तो 'वर्तमान की परछाई' है ऐ दोस्त...जिसकी कशमकश मुझसे है...!© 2017-18 सर्वाधिकार सुरक्षित''

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Tuesday, May 22, 2012

मुहब्बत भी एक किस्म की फकीरी है जनाब (ग़ज़ल)

मुहब्बत भी एक किस्म की फकीरी है जनाब
फुरकते-महबूब में तड़पना मझबूरी है जनाब

सूखे पत्तों की खबर अंधड़-तूफानों से पूछिये
बेसहारा जिंदगी की हर सांस आखिरी है जनाब

वो कहते रहे गैरों से दिल की बाते रो-रो कर
जैसे इश्क की बातों में अश्क जरुरी है जनाब

ये चाँद ये सितारे ये जमीं आसमान हर कोई
अहसास की हवा में जिन्दा शरीरी है जनाब

गैरों  के घर का ठिकाना मत पूछिये 'हरीश'
रस्मे-तोहिन इस शहर में अब जरुरी है जनाब



3 comments:

अरे वाह! हुजुर,आपको अभी-अभी याद किया था आप यहाँ पधारें धन्य भाग हमारे।अब यहाँ अपने कुछ शब्दों को ठोक-पीठ के ही जाईयेगा मुझे आपके शब्दों का इन्तेजार है...


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