''आज़ाद है मेरी परछाई मेरे बगैर चलने को,,,मै नहीं चाहता मेरे अपनों को ठोकर लगे...ये तो 'वर्तमान की परछाई' है ऐ दोस्त...जिसकी कशमकश मुझसे है...!© 2017-18 सर्वाधिकार सुरक्षित''

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Monday, May 7, 2012

तू मेरा अपना सा लगे है (ग़ज़ल)



तेरा कूँचा-ऐ-शहर भी मेरा अपना सा लगे है
क्यों रहूँ तन्हा जब  तू मेरा अपना सा लगे है  

गुजरे ज़माने की बातें सलीके से क्या करनी 
जब ये वारदातों का जमाना अपना सा लगे है 

हर रात चरागों से गुफ्तगू का आलम जारी है 
पतंगों का जानलेवा इश्क मेरा अपना सा लगे है 

एक बारगी तुझसे टूट के मुहब्बत भी कर लूं' हरीश'
मगर तन्हाई ये मंजर-ऐ-अश्क मेरा अपना सा लगे है


तेरा कूँचा-ऐ-शहर भी मेरा अपना सा लगे है
क्यों रहूँ तन्हा जब  तू मेरा अपना सा लगे है ...!

3 comments:

  1. मनभावन रचना ||
    बधाई स्वीकारें ||

    ReplyDelete
  2. क्या यही प्यार है :)....समय मिले आपको तो कभी आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/

    ReplyDelete

अरे वाह! हुजुर,आपको अभी-अभी याद किया था आप यहाँ पधारें धन्य भाग हमारे।अब यहाँ अपने कुछ शब्दों को ठोक-पीठ के ही जाईयेगा मुझे आपके शब्दों का इन्तेजार है...


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