तेरा कूँचा-ऐ-शहर भी मेरा अपना सा लगे है
गुजरे ज़माने की बातें सलीके से क्या करनी
जब ये वारदातों का जमाना अपना सा लगे है
हर रात चरागों से गुफ्तगू का आलम जारी है
पतंगों का जानलेवा इश्क मेरा अपना सा लगे है
एक बारगी तुझसे टूट के मुहब्बत भी कर लूं' हरीश'
मगर तन्हाई ये मंजर-ऐ-अश्क मेरा अपना सा लगे है
तेरा कूँचा-ऐ-शहर भी मेरा अपना सा लगे है
क्यों रहूँ तन्हा जब तू मेरा अपना सा लगे है ...!
मनभावन रचना ||
ReplyDeleteबधाई स्वीकारें ||
शुक्रिया श्रीमानजी...!
Deleteक्या यही प्यार है :)....समय मिले आपको तो कभी आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
ReplyDeletehttp://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/