''आज़ाद है मेरी परछाई मेरे बगैर चलने को,,,मै नहीं चाहता मेरे अपनों को ठोकर लगे...ये तो 'वर्तमान की परछाई' है ऐ दोस्त...जिसकी कशमकश मुझसे है...!© 2017-18 सर्वाधिकार सुरक्षित''

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Friday, May 4, 2012

तुझे नज़रंदाज़ कर लूं ( ग़ज़ल)

  ये मुमकिन तो है की तुझे नज़रंदाज़ कर लूं 
  खफा हो जाऊ कभी खुद से कभी माफ़ कर लूं 

  तेरी दबी आवाज़ भी सुने एक अरसा बीत गया 
  हो हुनर तो तेरी आवाज़ को मेरी आवाज़ कर लूं 

  किस्से मशहूर है लोगो की जुबानी मेरे दिल के
  गर बस में होता तो हर किस्से पे ईनाम कर लूं

आज फिर कोई गुमनाम बस्ती में लौट आया हैं 'हरीश'
 बिखर के चरणों में गिरुं या पहले आदाब कर लूं


  ये मुमकिन तो है की तुझे नज़रंदाज़ कर लूं 
  खफा हो जाऊ कभी खुद से कभी माफ़ कर लूं 

4 comments:

  1. नजरंदाज कर लो-
    अंदाज अच्छा |

    ReplyDelete
  2. किस्से मशहूर है लोगो की जुबानी मेरे दिल के
    गर बस में होता तो हर किस्से पे ईनाम कर लूं... वाह

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  3. आज फिर कोई गुमनाम बस्ती में लौट आया हैं 'हरीश'
    बिखर के चरणों में गिरुं या पहले आदाब कर लूं ,,,

    बहुत खूब ... लाजवाब शेर है हरीश जी ... मज़ा आ गया गज़ल का ...

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  4. बहुत ही सुन्दर गजल..
    अंतिम पंक्तिया बहुत अच्छी है..

    ReplyDelete

अरे वाह! हुजुर,आपको अभी-अभी याद किया था आप यहाँ पधारें धन्य भाग हमारे।अब यहाँ अपने कुछ शब्दों को ठोक-पीठ के ही जाईयेगा मुझे आपके शब्दों का इन्तेजार है...


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