''आज़ाद है मेरी परछाई मेरे बगैर चलने को,,,मै नहीं चाहता मेरे अपनों को ठोकर लगे...ये तो 'वर्तमान की परछाई' है ऐ दोस्त...जिसकी कशमकश मुझसे है...!© 2017-18 सर्वाधिकार सुरक्षित''

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Wednesday, May 2, 2012

वक़्त मिले गर तो (नयी ग़ज़ल)

वो ग़मज़दा है मगर मुसकुरा के बात करता है
ये उसका सलीका हैं सलीके से बात करता है ...

न जाने क्यूँ वक़्त कमबख्त ठहर जाता है 
वो जब भी मिलता है कुछ करामात करता है ...

मैंने बंजर जमीं में गुलाबों की फसल बोई है 
दरियादिल है तू जो बेवक़्त बरसात करता है ...

वक़्त मिले गर तो खुदा से मुहब्बत भी कर लूं 'हरीश' 
ये बात और है कि वो मुझसे मुहब्बत दिन-रात करता है...

वो ग़मज़दा है मगर मुसकुरा के बात करता है
ये उसका सलीका हैं सलीके से बात करता है ...

2 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आज चार दिनों बाद नेट पर आना हुआ है। अतः केवल उपस्थिति ही दर्ज करा रहा हूँ!

    ReplyDelete
  2. आपकी तथाकथित उपस्थिति भी प्रेरणादायी है भाई सा...

    ReplyDelete

अरे वाह! हुजुर,आपको अभी-अभी याद किया था आप यहाँ पधारें धन्य भाग हमारे।अब यहाँ अपने कुछ शब्दों को ठोक-पीठ के ही जाईयेगा मुझे आपके शब्दों का इन्तेजार है...


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