''आज़ाद है मेरी परछाई मेरे बगैर चलने को,,,मै नहीं चाहता मेरे अपनों को ठोकर लगे...ये तो 'वर्तमान की परछाई' है ऐ दोस्त...जिसकी कशमकश मुझसे है...!© 2017-18 सर्वाधिकार सुरक्षित''

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Saturday, May 26, 2012

चलते-चलते आखिरी सलाम हो जाए...(ग़ज़ल)

इस जिंदगी के नाम इक जाम हो जाये
कुछ रात मयखाने में आराम हो जाये

हम उनसे ये कहकर घर से निकले थे 
इंतजार ना करना चाहे शाम हो जाए 

वो इतना हसीं है की गम न होगा गर
उससे मुहब्बत करके बदनाम हो जाए 

क्यू करे मुहब्बत छुप-छुपकर जहाँ से 
हर राज बेनकाब सरे-आम हो जाए 

इक मुलाकात उनसे जरुरी है 'हरीश'
चलते-चलते आखिरी सलाम हो जाए




इक कसम ऐसी भी अब खा ली जाये (गज़ल)



इक कसम ऐसी भी अब खा ली जाये 
जिससे दोस्ती-दुश्मनी संभाली जाये 

टूटी तस्वीर से आंसू टपकते देखकर 
किसी कलंदर की दुआएं बुला ली जाये 

अब कोई ताल्लुक न रहा उसका मुझसे
हो सके इश्क की अफवाहें दबा ली जाये 

खबर है तूफां जानिबे-समंदर निकले हैं 
वक़्त पर टूटी कश्तियाँ सजा ली जाये 

इन्तजारे-यार की भी हद होती है 'हरीश' 
थकी आँखें इक रात को सुला ली जाये 

Wednesday, May 23, 2012

चाँद भी तेरे हुस्न का गर दीवाना हो जाये (जिन्दा ग़ज़ल)


मुहब्बत का तिलिस्मी अफ़साना हो जाये 
चाँद भी तेरे हुस्न का गर दीवाना हो जाये 

इस नादान दिल को सुकूँ भी मिल जायेगा  
हर रोज तेरा मेरे घर आना जाना हो जाये 

ये लंबा सफ़र है जीने का आखरी सांस तक  
जिंदगी को लम्हों में बांटकर जीना हो जाये 

अब मजे की बात नहीं रही तेरी मुहब्बत में 
हो सके तो तेरा रूठना मेरा मनाना हो जाये 

खुद के साये पर हरगिज़ एतबार न करो 'हरीश' 
अँधेरे में हमें रुकना हो तो ये रवाना हो जाये 

Tuesday, May 22, 2012

मुहब्बत भी एक किस्म की फकीरी है जनाब (ग़ज़ल)

मुहब्बत भी एक किस्म की फकीरी है जनाब
फुरकते-महबूब में तड़पना मझबूरी है जनाब

सूखे पत्तों की खबर अंधड़-तूफानों से पूछिये
बेसहारा जिंदगी की हर सांस आखिरी है जनाब

वो कहते रहे गैरों से दिल की बाते रो-रो कर
जैसे इश्क की बातों में अश्क जरुरी है जनाब

ये चाँद ये सितारे ये जमीं आसमान हर कोई
अहसास की हवा में जिन्दा शरीरी है जनाब

गैरों  के घर का ठिकाना मत पूछिये 'हरीश'
रस्मे-तोहिन इस शहर में अब जरुरी है जनाब



Sunday, May 20, 2012

शायरी-शायरी खेल बनाम शायर का इम्तिहान...

दोस्तों!
ग़ज़ल सूफी फकीरों की दौलत है जो शायरों को विरासत में मिली है। ये जागीर ही ऐसी है जिसे हर कोई अपनी मुहब्बत और गमदीदा माहौल में इस्तेमाल करता है। मुहब्बत-गम और शायरी इस जहाँ की एक अटूट तिगडी है जिसकी खूबसूरती का चर्चा वक़्त की पगडंडियों पर सरे-राह होता रहा है...।
              आज अलसुबह हमारा नादाँ दिमाग एक शरारत कर गया और हमें ये ख्याल दे गया की क्यों न आप जैसे फनकारों के साथ एक अल्फाजों का खेल खेला जाय। यह खेल बिलकूल पाक-साफ़ है। हम आपके समक्ष ग़ज़ल का एक ''मिसरा'' सजाने की गुस्ताखी किये जा रहे है जो निहायत एक खुबसूरत जिंदगी जीने का तलबगार है ।इस मिसरे को उम्मीद है की आपका हुनर इसे ग़ज़ल बन जाने तक की जिंदगी बख्स दे...।
''हुनर  को  इम्तिहानों  तक ले चलो
आशिकों को मयखानों तक ले चलो 
ये मिसरा भी जीने को बेताब सा है दोस्त 
इसे किसी खुबसूरत ग़ज़ल तक ले चलों''
               आपको महज करना ये है कि अपने कमेन्ट में काफ़िया और रदीफ़ का ख्याल रखते हुए अगला मिसरा सुपर्दे-खेल करना है....।
(विशेष सूचना: आपसे विनम्र गुजारिश है की ये दिल को बहलाने का महज एक खेल है जिसे खेल की मानिंद ही खेलना है...अपशब्दों का इस्तेमाल वर्जित है।)
आपकी दिलनवाजी का अभी से ही शुक्रिया...!

ये है वो मिसरा जिसे जिंदगी की तलब है....

............''चाँद भी तेरे हुस्न का गर दीवाना हो जाये''..............



Friday, May 18, 2012

खुबसूरत हो तुम (ग़ज़ल)


नकाब में हुस्न की मूरत हो तुम
रंगे-खुशबू सी खुबसूरत हो तुम
जिंदगी की बेनजीर जागीर हो 
किसी गरीब की दौलत हो तुम 
हो उजली ठंडी बूंद बारिश की 
बंजर जमीं की जरुरत हो तुम 
बुरा मानने का जिक्र क्यों करूं
मीठी-मीठी सी शरारत हो तुम 
दर्द का दरिया सुकूं का साहिल 
कश्ती में बिखरी मुहब्बत हो तुम 
जुल्फों के साये में खुशबू के घर
चांदे-पूनम सी खुबसूरत हो तुम 
यूँ कैसे भुला दूं तुम्हे मैं  'हरीश'
रूठी ही सही मेरी किस्मत हो तुम

उसका रूठ जाना तबाही से कम नहीं (ग़ज़ल)

उसका  रूठ  जाना  तबाही से कम नहीं
लिबासे-ख़ामोशी झूठी गवाही से कम नहीं

अब न रोना है उसका  न खिलखिलाना
वो गुजरे लम्हे भी  शायरी से कम नहीं

तमाम उम्र भी कम है  शिकवों के लिए
जिंदगी के शिकवे  जिंदगी से कम नहीं

पंछी  भी उड़ते-उड़ते  दम तोड़ देते है
आसमां की कीमत  जमीं से कम नहीं

अकसर वही बात  लोग किया करते है
जो मुहब्बत की  कहानी से कम नहीं

ख्वाब में खुदा भी मुझसे कह गया'हरीश'
मेरी बंदगी भी   तेरी बंदगी से कम नहीं

Thursday, May 17, 2012

जिन्दा हूँ मगर आज भी गम के लिबास में (ग़ज़ल)

जिन्दा हूँ मगर आज भी गम के लिबास में 
बिखरी हुई कहानियाँ जिस्मे-अलफ़ाज़ में 

आखिरी ख्वाहिश ये मेरी नाम-ऐ-साकी है 
तमाम  ईंट-ऐ-कब्र  नहला  दो  शराब में

न जाने किसके गले से आगाज़-ऐ-क़त्ल हो 
बेहिसाब फिक्रमंद है लोग बिखरी कतार में

बदनामियों का डर महज  उनको ही होगा
वे अजनबी जो ठहरे है मेरे घर के पास में 

ख़त्म हो भी तो कैसे हो परेशानियां  'हरीश'
हर  सवाल  गमदिदा है  तेरे हर  जवाब में 

Saturday, May 12, 2012

जिंदगी जीने के जो आसां तरीके है (इक नादाँ ग़ज़ल)


जिंदगी जीने के जो आसां तरीके है 
मौत की चौखट पे मुद्दतों से सीखे है 

तू ही था जिस पर मुझे नाजिश था कभी 
आज तेरे ख्याल भी खामोश फीके है 

होश में रहना गज़ब हुनर की बात है 
इश्क की शराब जो हम पी के बैठे हैं 

परेशाँ है बादशाहों के महल घर-बार  
बेफिक्र चैन-औ-सुकूँ से फकीर लेटे है 

क्या खूब सीखा हैं सलीका बंदगी का ऐ' हरीश' 
महबूब के पैरों की धूल सर पर उन्डेले है 

नाजिश =गर्व

नफरतों की गुस्ताखी (ख्वाबों से बनी गजल)



जिंदगी के मसलों की ज़ीनत जरुरी है 
जागीरे-बख्शीस की कीमत जरुरी है...

नफरतों की गुस्ताखी हर रोज करता हूं
मुहब्बत करने को तो फुर्सत जरुरी है... 

जंग का मैदान जख्मे-जमीं हो गया 
अब अमनौ-चैन की हरकत जरुरी है...

आँख का मतलब नहीं हर वक़्त रोया जाय 
अश्क की बारिश को फुरकत जरुरी है... 

मुहब्बत का खेल तू न खेल पायेगा'हरीश'
इस हुनर के खेल में शौहरत जरुरी है...


जिंदगी के मसलों की ज़ीनत जरुरी है 
जागीरे-बख्शीस की कीमत जरुरी है...

Thursday, May 10, 2012

बेक़सूर निगाहों के मसलें (ग़ज़ल)

बेक़सूर निगाहों के मसलें चश्मदीद गवाह हो गये 
हम इतना डूबे उसकी चाहत में कि दरिया हो गये 

मुहब्बत की बाँहों में सिसककर गम शुकून पाता है 
अश्कों में नहाकर बेआबरू  तमाम शिकवा हो गये

 एक बार जो उसकी खैर ली तो वो लिपट के रो पड़ा 
बातों बातों में हम भी गमे-यार के हिस्सेदार हो गये 

हर पत्थर को खंगालने की जब-जब भी चली है बात 
जाने क्यूँ बेबुनियाद मेरे शहर के मकां परेशां हो गये 

अकसर सूखे पत्ते उसी सिम्त फेंक दिए जाते है'हरीश'
जिस किसी सिम्त रवाना अश्कियाँ तूफां हो गये...!

Wednesday, May 9, 2012

खुशबू का आलम जारी है (ट्विटर पर लिखी मेरी ग़ज़ल)



तुझसे बेपनाह मुहब्बत की ये कारगुजारी है 
नादाँ बस्ती में जनाजा-ऐ-महबूब की तैयारी है 

तुझे भूल भी जाऊं मगर आज ये हालात है मेरे 
बिखरी जुल्फों में भी खुशबू का आलम जारी है 

बेफिक्र बस्ती में इक फकीर धुनी तपा के बैठ गया 
बेसुध खुदा को पाने की उसकी पुरजोर तैयारी है 

कुछ न कहना उसे वो हर बात का बुरा मानती है 
वो गज़ब की बेशकीमती है वो खुदा की दुलारी है 

खेल-ऐ-मुहब्बत में खबरदारी भी जरुरी है 'हरीश'
इसमे जीत भी करारी है इसमे हार भी करारी है 

Tuesday, May 8, 2012

एक कहानी ऐसी हो (ऐतिहासिक ग़ज़ल)


कोरे पन्नों की किस्मत में एक कहानी ऐसी हो
इतिहासों के सर पर मढ़ते इल्जामों के जैसी हो

ये तब्दिली का मौसम है तब्दिली के बादल हैं
तेरी मेरी सबकी कोशिश ऊजले सावन जैसी हो

बूढी रस्मे तोड़ फेंकना इतना मेरा मकसद है
तेरे मकसद की सूरत भी मेरे मकसद जैसी हो

तड़फ रहा है मुल्क ये अपना जंजीरों के पाशो में
हर जंजीर पर चोट भी गहरी लोहारों के जैसी हो

जुल्मों के साये में जीना बीते कल की बाते है
'हरीश' क्रांति की तैयारी उड़ते बाजों जैसी हो....



Monday, May 7, 2012

तू मेरा अपना सा लगे है (ग़ज़ल)



तेरा कूँचा-ऐ-शहर भी मेरा अपना सा लगे है
क्यों रहूँ तन्हा जब  तू मेरा अपना सा लगे है  

गुजरे ज़माने की बातें सलीके से क्या करनी 
जब ये वारदातों का जमाना अपना सा लगे है 

हर रात चरागों से गुफ्तगू का आलम जारी है 
पतंगों का जानलेवा इश्क मेरा अपना सा लगे है 

एक बारगी तुझसे टूट के मुहब्बत भी कर लूं' हरीश'
मगर तन्हाई ये मंजर-ऐ-अश्क मेरा अपना सा लगे है


तेरा कूँचा-ऐ-शहर भी मेरा अपना सा लगे है
क्यों रहूँ तन्हा जब  तू मेरा अपना सा लगे है ...!

Sunday, May 6, 2012

मजा आ जाये (ग़ज़ल)

कुछ तो हो बहाना कि मजा आ जाये
गर तू हो करीब मेरे मजा आ जाये 

ये कोलाहल ये बेहिसाब शोर-शराबा 
शहर में हो कोई गांव मजा आ जाये 

मेरे जनाजे को सजाने से पहले उसे 
मेरी कसम याद दिला दो मजा आ जाये

तेरी नज़रों से दूर चला भी जाऊं चुपचाप                  
एक बारगी तू कह दे तो मजा आ जाये 


अब और कितना उसे याद करूं 'हरीश'
रफ्ता-रफ्ता भूल ही जाऊं मजा आ जाये 

कुछ तो हो बहाना कि मजा आ जाये
गर तू हो करीब मेरे मजा आ जाये...!

Saturday, May 5, 2012

जुगनुओं की तरह जला जाये (ग़ज़ल)

तेरे हुस्न का किस्सा तेरा कातिल सुना जाये,
बात गर मजे की है बेबाक कुछ तो कहा जाये...!

गैरों के घरों में अपने लोग भी नजर आ जाते हैं 
गली से गुजरते हुए गर बेखौफ झाँका जाये...!

खुद मंजिलें अपनी और लौट सकती है अगर 
अँधेरे सफ़र में भी जुगनुओं की तरह जला जाये...!

ता-उम्र मेरी ये ख्वाहिश जिन्दा रहेगी 'हरीश'
रूठ जाये गर दुनिया तो मुझसे ना रूठा जाये...!

तेरे हुस्न का किस्सा तेरा कातिल सुना जाये
बात गर मजे की है बेबाक कुछ तो कहा जाये...!

Friday, May 4, 2012

तुझे नज़रंदाज़ कर लूं ( ग़ज़ल)

  ये मुमकिन तो है की तुझे नज़रंदाज़ कर लूं 
  खफा हो जाऊ कभी खुद से कभी माफ़ कर लूं 

  तेरी दबी आवाज़ भी सुने एक अरसा बीत गया 
  हो हुनर तो तेरी आवाज़ को मेरी आवाज़ कर लूं 

  किस्से मशहूर है लोगो की जुबानी मेरे दिल के
  गर बस में होता तो हर किस्से पे ईनाम कर लूं

आज फिर कोई गुमनाम बस्ती में लौट आया हैं 'हरीश'
 बिखर के चरणों में गिरुं या पहले आदाब कर लूं


  ये मुमकिन तो है की तुझे नज़रंदाज़ कर लूं 
  खफा हो जाऊ कभी खुद से कभी माफ़ कर लूं 

Wednesday, May 2, 2012

वक़्त मिले गर तो (नयी ग़ज़ल)

वो ग़मज़दा है मगर मुसकुरा के बात करता है
ये उसका सलीका हैं सलीके से बात करता है ...

न जाने क्यूँ वक़्त कमबख्त ठहर जाता है 
वो जब भी मिलता है कुछ करामात करता है ...

मैंने बंजर जमीं में गुलाबों की फसल बोई है 
दरियादिल है तू जो बेवक़्त बरसात करता है ...

वक़्त मिले गर तो खुदा से मुहब्बत भी कर लूं 'हरीश' 
ये बात और है कि वो मुझसे मुहब्बत दिन-रात करता है...

वो ग़मज़दा है मगर मुसकुरा के बात करता है
ये उसका सलीका हैं सलीके से बात करता है ...

Sunday, April 29, 2012

मैं अकसर देख आया हूँ (ग़ज़ल)

मैं रोते हुए बेबाक चन्द मंजर देख आया हूँ 
संभलते हुए बेहिसाब लश्कर देख आया हूँ 

काजल से सजी आँखें भी रूठ जाया करती है 
पलकों पे सजे अश्कों के दफ्तर देख आया हूँ 

इक अरसे बाद हंसा है वो तो कोई बात जरुर है 
वरना उसे सिसकते हुए मैं अकसर देख आया हूँ 

मैं डूबते हुए सूरज से शिकायत करता भी तो कैसे 'हरीश' 
हर साँझ मुस्कुराते हुए उसे अपने घर देख आया हूँ...!

Thursday, March 22, 2012

गुजरे पलों की अहमियत

मै अपनी बात करने का मिजाज़ नहीं रखता मुझे अपनों की बाते करना अच्छा लगता है। सहूलियत रहती है दुःख दर्द बाँटने में। आज फिर किसी अपने की याद आई तो लिखने बैठ गया । ना जाने क्यों गुजरे पलों की अहमियत हर रोज बढ़ती ही जाती है लोग जाने अनजाने में मिलते है बिछुड़ते है और फिर सफ़र शुरू होता है यादों का परिंदों की मानिंद मुझे भी हक था खुले आसमान में पंख पसारने का आजादी का मै भी शौक़ीन रहा हूँ ,पर हर रोज आसमान मन मुताबिक खुला नहीं मिलता विचरने को किसी न किसी दिन कमबख्त यादों के बादल आ ही जाते है कुछ भूली बिसरी यादें तो कुछ अनसुलझे शिकवें हर किसी की दिनचर्या का अहम् हिस्सा रहे है और मै तो इनसे अछूता रह ही नहीं सकता. 
मंजिलों की दूरियों से मैं वाकिफ था मगर 
हर पत्थर मेरी राह का ठोकर रहा है.....!
.....आज बस इतना ही! वक़्त मिला तो और लिखने की सोचेंगे।
   

Monday, January 23, 2012

मेरा अपना गणतंत्र दिवस...।

आखिर आ ही गया
फिर
मेरे देश का 'दिवस'
...गणतंत्र दिवस!
नादान पाठशालाओं में
 बचा-खुचा एक राष्ट्रीय दिवस...
मेरा अपना गणतंत्र दिवस
सफेदपोशो की सलामी का दिवस,
बहादूर शहीदों की यादों का दिवस,
मेरा अपना गणतंत्र दिवस...

Monday, January 9, 2012

नयी ग़ज़ल/ ''एक वक़्त तेरा इश्क भी दौलत सा था 'हरीश'...

आईनों को चेहरों से नफ़रत सी हो गयी
सायों को दूर फेंकने की हसरत सी हो गयी

अब इतना वक़्त कहाँ कि तेरी परवाह करू
मुझे अपने आप से मुहब्बत सी हो गयी

रास्तों के क़त्ल का इलज़ाम मुझपे है तो है
तन्हा अकेले चलने की आदत सी हो गयी

एक वक़्त तेरा इश्क भी दौलत सा था 'हरीश'
आज तेरी याद भी दहशत सी हो गयी

आईनों को चेहरों से नफ़रत सी हो गयी
सायों को दूर फेंकने की हसरत सी हो गयी...!

Sunday, January 8, 2012

गर तू खुशबू का शौक रखता है...!

समंदर भी हूँ दरिया भी हूँ गर तू डूबने का शौक रखता है
खुली किताब की तरह हूँ मैं गर तू पढने का शौक रखता है

ये नौबत भी आएगी इक दिन कि रह न पायेगा मेरे बगैर
मैं गुलाब बन जाऊंगा गर तू खुशबू का शौक रखता है



सिलसिला जारी है मेरा आग से मुलाकातों का आजकल
मैं मुहब्बत बन जाऊंगा गर तू जलने का शौक रखता है


मुशायरों से वाकिफ हूँ तालियों कि तिस्नगी भी जानी है
मैं ग़ज़ल बन जाऊंगा गर तू गुनगुनाने का शौक रखता
है 


होश में आने के लिए मैं अकसर अकेले ही शराब पीता हूँ 'हरीश'
मैं हुजूम-ऐ-मस्ती बन जाऊंगा गर तू मैखाने  का शौक रखता है

Saturday, January 7, 2012

नयी ग़ज़ल--'' पत्थर की मूरत हूँ मैं प्रेम कर या सजदा कर...!''

हो सके तो माफ़ कर या खुद अपने को जुदा कर
पत्थर की मूरत हूँ मैं प्रेम कर या सजदा कर

और कितनी बातें करोगे रूठने मनाने की पर्दों में
वक़्त की ये आरज़ू है अपने आप को बेपर्दा कर

हक की जागीर पत्थरों पे खुदवाने से क्या होगा
बेशकीमती मुहब्बत है तेरी गैरों को फायदा कर

बहुत खा ली है कसमे दिल लगाने की पशोपेश में
अब कुछ यूँ कर कि कसने न खाने का वादा कर

बेशक मुझसे जुदा होकर भी तू जी न पायेगा 'हरीश'
आ बैठ मुझसे अपनी दो-चार साँसों का सौदा कर

हो सके तो माफ़ कर या खुद अपने को जुदा कर
पत्थर की मूरत हूँ मैं प्रेम कर या सजदा कर...!

सफ़र जिंदगी का...(शब्दों में)

महज़ एक अधकचरी किलकारी
और सफ़र शुरू
जिंदगी का...!
जीवंत सांसों का
खुले आसमानों का
रंगों का
बारिशों का
अपनों का -परायों का
होंसलों का
अफसानों का
शबनमी कली का
सफ़र जिंदगी का....!

शुरूआती सफ़र की रफ़्तार
मुकम्मल नहीं होती
लडखडाती हुई
गिरती-पड़ती हुई
अँगुलियों के सहारे चलने वाली
रोते-हँसते हुए सिखने वाली
होती है रफ़्तार
और अनुभव भी कच्चा होता है
जैसे बुलबुलों का हार...!

सफ़र आगे बढ़ता है
शब्दों-अक्षरों में खो जाने को
किताबों में गैर जिंदगियां  पढता है
हंसती हुयी- बिलखती हुयी
खुद को रफ़्तार देने के लिए
कुछ सीखना पड़ता है...!

एकाएक सफ़र के 
अधूरे होने का आभास होता है
हमसफ़र की तलाश रहती है
मस्ती रहती है
मौज रहती है
उतार-चढाव
टेढ़े-मेढे मोड़ों की तादात रहती है
हमसफ़र के साथ
फिर रफ़्तार बुलंदीयों पर
ऊँचे आसमानों पर रहती है
नयी शाखें,नयी कलियाँ फूटती है
खुशबू से ओतप्रोत
गुलाब बनने को
और सफर बढ़ता है 
वक़्त की आजमायिशों पर...!

रफ्ता-रफ्ता
सफ़र फिर लडखडाता है
मगर थामने के लिए
अब अंगुलियाँ नहीं होती
छड़ियाँ होती है
सांसें अटकने का आभास होता है
जिंदगी का आलिशान महल
अनुभवों की बिरादरी के साथ
ढहने को होता है
इस तरह जिंदगी का सफ़र ख़त्म होता है
शून्य में...!

Friday, January 6, 2012

एक गुनाहगार का ख़त मूरत-ऐ-मुहब्बत के नाम...

प्रिय  मूरत-ऐ-मुहब्बत,
                     तुम्हारे भेजे ख़त की आखिरी यात्रा आज मेरे हाथों में पहुँचते ही दम तोड़ गयी। ख़त पढ़कर तेरी नादानियों पर हंसी भी आई और मेरी अतीत की कारगुजारियों पर रोना भी। खैर...अब जिक्र मैं अपने हालातों का करता हूँ...     
                     आजकल मैं अपने हिस्से के गुनाहों का बड़ी सिद्दत से ख्याल रखता हूँ। मुझे बेहद अजीज है मेरे ये गुनाह अतीत के।बस इसी खातिर सहेज के रखे है इन्हें दिल के एक मासूम कोने में। ये उस वक़्त के गुनाह है जब तू मेरे साथ हुआ करता था।मेरा अपना था। मुस्कुराना-हँसना-रातों में जगना-जगाना, सर्द हवाओं से दिल की बातें करना, परिंदों के परवाजों के गीत गाना...यही तो है वे सब मेरे अपने गुनाह! अतीत के गुनाह। शुक्र है ये गुनाह अब मुझसे नहीं किये जाते। और तुम हो की सिसकियों के सायों में आहट सी बन के रह गयी हो पदचापों की मानिंद मेरे दिल-ओ-दिमाग में। ये मेरे अपने हालात है कमोबेश शब्दों में बयान नहीं होते। तेरी अलसाई आँखों का शर्म के चक्रवातों में झुक जाना, तेरी खुशबूओं से आब-ओ-हवा का पाक-साफ़ हो जाना...मैं अब भी नहीं भूला। तेरी कसमों की चांदनी तो आज भी मेरे बटूए में है, समेटी हुयी। सहेज के रखी हुयी। अब जब भी मुहब्बत के बाज़ार से गुजरता हूँ अकसर मेरे हाथ जिनसे गुलाबों के फुल लिए थे-दिए थे गुज़रे वक़्त में, कमबख्त मेरी जेब में अतिक्रमण कर ही जाते है ताकि खरीद सकू वफ़ा की चाबी से चलने वाले खिलौनें...हँसते हुए-गाते हुए-रमते हुए खिलौनें।
                   तो क्या आज भी तेरे होंठ कंपकंपाते है मेरा नाम लेते हुए।...अच्छा है! अकसर यही होता है। जो वफ़ा की बातें बार-बार करता है वो वफ़ा एक बार भी नहीं करता।उसके अपने होंठ भी क्या साथ देंगे। इसीलिए तो  किस्तों में शब्दों की चारदीवारी खींचनी पड़ती है अपने हक के मंदिर को बेआबरू करने से पहले। मुहब्बत तो ऐसी ही होती है..क्या करें। इसमे ना तेरा कसूर है ना तेरी वफाओं का क्योकि इस बाज़ार में खुशबूओं की नीलामी तक सर-ऐ-राह हो जाती है। किस्मत की बाज़ी है, बिक जाए तो बेमोल हो जाती है और ना बीके तो बेशकीमती।
                  अब छोडो भी...!क्या रोना खुद की ही बेजा हरकतों पर।सुबह का भूला अगर भूल ही गया कि उसे शाम को घर लौटना भी है तो भूल ही जाने दो।अगली सुबह तो उसे आना ही है।पलकों का गुनाह बेकुसूर आँखे क्यों भुगते और बिचारे अश्कों का तो कोई लेना-देना भी न था।क्यों बहाते हो इन्हें फोकट में। अश्क अनमोल है जरा सम्भाल के रखो।जिंदगी बड़ी बेरहम है कब साथ छोड़ जाये कुछ पता ही नहीं चलता और अगर पता चलता तो लोग मुहब्बत ही क्यों करते? वफ़ा कि कसमें क्यों खाते? क्यों होते मुहब्बत के सलीके दरकिनार?
                    खैर मुझसे ना सही मेरे नाम से तो तेरा वास्ता अब भी है...तुम्हारे लिखे खतों से ये मालुम होता है कि तुमने मेरा ये ऐतबार आज तलक नहीं तोडा...शुक्रिया..!   
                                                                                                  तुम्हारा अपना
                                                                                                     ''गुनाहगार''

Thursday, January 5, 2012

अक्षर-शब्द और स्याही के नाजायज़ फासलें...


 अक्षर-शब्द और स्याही के 
ये नाजायज़ फासलें
 मुझसे देखे नहीं जाते...!

इंसानी किताबों के भीतर 
बेबाक अक्षर 
खो से गये है
शब्दों के झूठे इल्जामों से 
और स्याही है
 कि न रूठ सकी 
न मना पायी किसी को 
न विद्रोही वाणी से
किसी क्रांति का आगाज़ किया 
कि शब्द शर्मशार हो जाये 
और पहचाने अपने वजूद को
अक्षरों की निष्कपट, 
भोली-मासूम सी
आत्माओं के अटूट बन्धनों में...!

अक्षर-शब्द और स्याही के 
ये नाजायज़ फासलें
 मुझसे देखे नहीं जाते...!

Wednesday, January 4, 2012

''पगलाई है बस्ती सारी...!'' इक नामुमकिन नयी ग़ज़ल


पगलाई  है सारी बस्ती    इक तेरे  रूठ जाने से 
बिखर गये हो अक्षर जैसे पन्नों के फट जाने से

मिटटी के नादान घरों की छत की किस्मत क्या होगी
तिरपालों का मोल बढ़ा है    बारिश के आ जाने से

कोरे-कोरे कीर्तन है और भजनों में कोई भाव नहीं
भगवानों में रोष बहुत है   मंदिर के ढह जाने से

कुसूर नहीं है इसमे तेरा तू तो आता-जाता था
उसके घर में आग लगी है   मेरा पता बताने से

किनारों की खता नहीं ये टूट-बिखरना जायज है
दरियाओं में होड़ लगी थी  जल्दी ही भर जाने से 

साँझ ढले घर को आ जाना बेशक मुमकिन है 'हरीश'
रातों के अक़सर मसलें है   सूरज के ढल जाने से

पगलाई  है सारी बस्ती    इक तेरे  रूठ जाने से 
बिखर गये हो अक्षर जैसे पन्नों के फट जाने से...!

Tuesday, January 3, 2012

नादान ख्वाब...



आँखों की भीगी पलकें 
अब बंद नहीं होती 
ख्वाबों के लिए...

काश वो ख्वाब न देखा होता 
अश्कों का जलजला न होता
आँखों में आज 
न होती तनहा रातें 
न वफ़ा पे रोना आता...

मगर मैं रोक न पाया खुद को
नादान था शायद 
हल्के रंगों से 
इन्द्रधनुषी ख्वाब बुनने चला था,
वो ख्वाब भले बेवफा था 
मगर हसीन भी कम न था,,,

आहिस्ता-आहिस्ता 
मैं जब भी करवट बदलता हूँ 
वो बातें उसकी वफ़ा की
वो दुलार रहमतों का 
अब देखने नहीं देता 
कोई खूबसूरत ख्वाब...

सब रह गया पीछे 
किसी बरगद की छांव में जैसे 
कारवां चलता ही गया 
बेफिक्री में 
अनजान सफ़र पर 
और मुहब्बत दम तोड़ गयी 
शातिर कसमों की 
अल्लहड़,
भोली पनाहों में...

आँखों की भीगी पलकें 
अब बंद नहीं होती 
ख्वाबों के लिए...!!


Monday, January 2, 2012

स्याही की अंतिम बूँद...



खुशबूदार केवड़े के उजले फूल की पंखुरी पे बैठी तितली के इन्द्रधनुषी जिस्म की खूबसूरती के जानदार गुमान की जायज़ दरियादिली के चमत्कारों की जादूगरी में डूबी बेहिसाब बेहोशी में पटाक्षेप करने वाले अजीज ख्यालों की सौगातों में निखरी मेरी जज्बाती कलम की स्याही की अंतिम बूँद से जो मैंने आज नए साल की शानदार शान-ओ-शौकत में लिखा वो यह था...''स्याही ख़त्म हो गयी है कल दवात लाना ही होगा''

Sunday, January 1, 2012

तो क्या आज पहला दिन है नए साल का?


कल रात शहर में शोर शराबा हुआ। पटाखों ने भी सोतें लोगों से कहा की हम भी आवाज करते है मौके-गैर र्मौके पर। सर्द रात होने की वजह से मैं अपने कानो को ढके सो रहा था।अचानक जगा, ये कोलाहल कैसा?  एक बारगी तो सोचा शायद सरकार मान गयी कि 'अब भ्रष्टाचार न करेंगे न किसी माइका लाल को करने देंगे'।चलो अच्छा हुआ देश के लिए भी और मेरे अपने लिए भी। मै भी कब तक खुद को सांत्वना की घूस देता रहता। मगर शायद मेरा ये सोचना भी एक ख्वाब की तरह उस वक़्त बिखरा जब सुबह टहलते-टहलते मैंने शहर के चौराहे पर आजादी के लिए कोलाहल करने वाले एक क्रांतिकारी की  मूर्ति के अगल-बगल शराब के पव्वे और बोतलें बिखरी देखी। गर्वीले भारतीयों के शालीन संस्कारों की राख देखी। ये जानकार दिल तार-तार रोया की अब जो कोलाहल होता है वो सिर्फ खोखला है! 'परिवर्तन' के लिए नहीं होता, 'विद्रोह' के लिए नहीं होता। होता है तो सिर्फ 'एंजोयमेंट' के लिए होता है संस्कारों को  जलाने के लिए होता है। नया 'साल' मनाने के लिए होता है, देश की अस्मिता के नये 'दिन' की शुरुआत के लिए नहीं होता।
युग बदलने से संस्कार नहीं बदल जाते । फिर क्या हो गया है मेरे यारों को, मेरे भाई भतीजों को। वतन के लिए कब करेंगे कोलाहल? कब ये कोलाहल परिवर्तन के लिए विद्रोह का साथ देगा? कब सुधारों की क्रांति की जड़ बनेगा ये कोलाहल?
चलिए, मै भी सोचता हूँ.आप भी सोचिये। कोलाहल न सही ये काम तो हम कर ही सकते है...!

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